Sunday, April 28, 2024

बंटती हुई दुनिया में दो नावों पर सवारी का अब विकल्प नहीं

यूरोपियन सेंट्रल बैंक (ईसीबी) की अध्यक्ष क्रिस्टीन लेगार्द ने इस 17 नवंबर को एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया (A Kantian shift for the capital markets union)। लेगार्द के इस भाषण को इस वर्ष अप्रैल में दिए अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन के भाषण (Remarks by National Security Advisor Jake Sullivan on Renewing American Economic Leadership at the Brookings Institution| The White House) की श्रेणी में रखा जाएगा।

सुलिवन के उस भाषण का सार यह था कि चीन के “गैर-बाजारवादी” आर्थिक सिस्टम ने अमेरिका की आर्थिक दिशा को परास्त कर दिया है। (सुलिवन के भाषण के बारे में ‘जनचौक’ की यह रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है- तो अमेरिका ने हार मान ली है। 

सुलिवन ने जिसे “गैर-बाजारवादी” अर्थव्यवस्था कहा, उसे चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी “चीनी ढंग का समाजवाद” कहती है। इस रूप में सुलिवन ने इस समय दुनिया में चल रही प्रतिस्पर्धा को दो प्रकार की आर्थिक प्रणालियों के बीच होड़ के रूप में पेश किया था। अब क्रिस्टीन लेगार्द के भाषण का सार यह है कि इस होड़ के कारण दुनिया दो भागों में बंट रही है और इससे यूरोप के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं।

यूरोपियन बैंकिंग कांग्रेस को संबोधित करते हुए लेगार्द ने कहा- ‘ऐसे संकेत लगातार बढ़ते जा रहे हैं, जिनके मुताबिक विश्व अर्थव्यवस्था आपसी होड़ में लगे दो खेमों के बीच बंटती जा रही है।’ लेगार्द ने आगाह किया कि दुनिया भर के सेंट्रल बैंकों के लिए इस परिघटना के बहुत गंभीर परिणाम होंगे।

लेगार्द इसके पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की प्रबंध निदेशक रह चुकी हैं। उसके पहले वे फ्रांस में वित्त, आर्थिक मामलों एवं उद्योग विभाग की मंत्री रह चुकी हैं। जाहिर है, आर्थिक और वित्तीय मुद्दों के मामले में वे एक अनुभवी शख्स हैं। यूरोपियन सेंट्रल बैंक पूरे यूरोपियन यूनियन (ईयू) का केंद्रीय बैंक है। यानी 27 देशों के इस संघ की वित्तीय नीतियां इसी संस्था में बनती हैं। ये नीतियां आईएमएफ के साथ तालमेल बनाते हुए तैयार की जाती हैं।

आम समझ है कि ईयू का संचालन ईसीबी, आईएमएफ और यूरोपियन कमीशन की तिकड़ी करती है। इसलिए ईसीबी अध्यक्ष की टिप्पणियों को गंभीरता से लिया जाता है। इसीलिए उनके ताजा भाषण को विश्व मीडिया में महत्त्वपूर्ण जगह मिली है।

इस भाषण में लेगार्द ने यूरोप के सामने बढ़ रही चुनौतियों का दो टूक वर्णन किया। उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण की दिशा पलटने (deglobalization), जनसंख्या में गिरावट और जलवायु परिवर्तन के कारण यूरोप इस समय एक निर्णायक मोड़ पर है। 

इसके पहले लेगार्द ने इस वर्ष के अप्रैल में न्यूयॉर्क में भी एक भाषण (Central banks in a fragmenting world) दिया था। उसमें भी उन्होंने विश्व अर्थव्यवस्था में हो रहे विभाजन की चर्चा की थी। लेकिन उनके ताजा भाषण को इसलिए ज्यादा अहमियत दी गई है, क्योंकि उन्होंने इसे यूरोप के बैंकरों के सामने दिया और आह्वान किया कि यूरोप को इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए अब तैयार होना पड़ेगा।

न्यूयॉर्क में दिए भाषण में लेगार्द ने कहा था- “विश्व अर्थव्यवस्था का रूप बदल रहा है। कोरोना महामारी, यूक्रेन के खिलाफ रूस के ‘अनुचित’ युद्ध, ऊर्जा को हथियार बनाए जाने, मुद्रास्फीति में अचानक आए उछाल, और साथ ही अमेरिका और चीन के बीच लगतार बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण भू-राजनीति में आमूल बदलाव आ रहा है। हम विश्व अर्थव्यवस्था को आपसी होड़ में शामिल दो खेमों के बीच विखंडित होते देख रहे हैं। उनमें से हर खेमा दुनिया के अधिक से अधिक बड़े हिस्से को अपने रणनीतिक हितों और साझा उसूलों के करीब खींचने की कोशिश कर रहा है। यह विखंडन दो बंटे हुए खेमों में ठोस रूप ले सकता है, जिनका नेतृत्व दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (अमेरिका और चीन) के हाथ में होगा।”

लेगार्द ने आगाह किया है कि नीति निर्माण के अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अभी जारी परिघटना के दूरगामी परिणाम होंगे। सेंट्रल बैंकों के लिए संभावित परिणामों की चर्चा करते हुए उन्होंन कहा कि वैश्विक सप्लाई का लचीलापन कमजोर हो जाएगा, जिससे हमें अधिक अस्थिरता से गुजरना होगा। भू-राजनीतिक तनावों में वृद्धि के साथ उसका एक परिणाम दुनिया के बहु-ध्रुवीय बनने (multipolarity) के रूप में आएगा।

लेगार्द ने अपने भाषणों में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद बनी एक ध्रुवीय दुनिया को खास अतीत-मोह के साथ याद किया। उनकी राय है कि उन दिनों के भू-राजनीतिक वातावरण से ‘दुनिया को लाभ हुआ’। अमेरिका के ‘वर्चस्वकारी’ नेतृत्व में ‘नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय संस्थान’ फूले-फले और विश्व व्यापार बढ़ा। इस कारण वैश्विक मूल्य शृंखलाएं (global value chains) मजबूत हुईं।

लेगार्द की राय में चीन विश्व अर्थव्यवस्था में शामिल हुआ, जिससे दुनिया में ‘श्रम-शक्ति की सप्लाई’ में भारी बढ़ोतरी हुई। विभिन्न देशों के अंदर मांग की स्थिति के मुताबिक तब विश्व आपूर्ति को कम-ज्यादा बनाए रखना संभव हुआ, जिससे मुद्रास्फीति की दर स्थिर हुई एवं यह निम्न स्तर पर बनी रही। उससे सेंट्रल बैंक बिना सप्लाई साइड बाधाओं की चिंता किए मुद्रास्फीति को स्थिर रखने पर ध्यान केंद्रित कर पाए।

लेगार्द ने स्वीकार किया है- “अपेक्षाकृत स्थिरता का वह दौर अब खत्म हो रहा है। इस कारण दीर्घकालिक अस्थिरता पैदा हो रही है, जिसका परिणाम निम्न आर्थिक वृद्धि, ऊंची लागत और अधिक अनिश्चित व्यापार भागीदारियों के रूप में देखने को मिलेगा।”

सुलिवन और लेगार्द के इन महत्त्वपूर्ण भाषणों की चर्चा करते हुए हम यूरोपियन यूनियन के विदेश नीति प्रमुख जोसेप बोरेल के अक्टूबर 2022 में दिए भाषण (EU Ambassadors Annual Conference 2022: Opening speech by High Representative Josep Borrell) को भी याद कर सकते हैं। इस भाषण में बोरेल ने आगाह किया था कि यूरोपीय समृद्धि के दिन अब चले गए।

उन्होंने कहा था कि यूरोप की समृद्धि रूस से आने वाले सस्ते कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस और चीन से आने वाले सस्ते माल पर टिकी थी। यूक्रेन युद्ध के बाद बनी परिस्थितियों में ये दोनों ही यूरोप के हाथ से निकल गए हैं। उस भाषण के दो महीने पहले ही फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अपने देशवासियों के सामने मौजूद गंभीर मुश्किलों का जिक्र करते हुए उन्हें आगाह किया था कि धन-धान्य के दिन अब चले गए (Macron warns of ‘end of abundance’ as France faces difficult winter)।

इन तमाम भाषणों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं- पहला यह कि अमेरिकी वर्चस्व वाली एकध्रुवीय दुनिया अब अतीत की बनती जा रही है। दूसरा निष्कर्ष यह है कि यह परिघटना मुख्य रूप से महाशक्ति के रूप में चीन के उदय और रूस के फिर से उठ खड़ा होने के कारण अस्तित्व में आई है। इनमें चीन का पहलू अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि चीन ने दुनिया के सामने एक खास आर्थिक मॉडल रखा है, जो विकासशील दुनिया (जिसे आज ग्लोबल साउथ के नाम से जाना जा रहा है) का हिस्सा समझे जाने वाले ज्यादातर देशों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है।

इस परिघटना की चुभन पश्चिम को महसूस हो रही है। इसका सबसे ताजा इजहार क्रिस्टीन लेगार्द ने किया है। उनके इस भाषण का संदेश है कि अब दुनिया भर के देशों को बंटती दुनिया के बीच अपना पक्ष चुनना होगा। इसके बीच चयन का पहला मुद्दा यह है कि वे डॉलर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एवं मौद्रिक व्यवस्था के साथ रहना चाहते हैं, या इस व्यवस्था के तैयार हो रहे विकल्प को अपनाना चाहते हैं।

ज्यादातर देशों में यह निर्णय लेना आसान नहीं है। इसकी वजह उन देशों के शासक वर्ग के हित हैं। उन वर्गों ने डॉलर केंद्रित व्यवस्था से अपने हित जोड़ रखे हैं। लेकिन उनकी चिंता का विषय यह है कि यह व्यवस्था कमजोर हो रही है। दूसरी तरफ यह धारणा मजबूत हो रही है कि अब भविष्य इसकी वैकल्पिक व्यवस्था का है।

वैकल्पिक व्यवस्था को आकार ब्रिक्स जैसे समूह दे रहे हैं। गौरतलब है कि इस या इसके सहयोगी समूहों (यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन, लैटिन अमेरिकी देशों के संगठन मरकासुर, शंघाई सहयोग संगठन आदि) की अर्थव्यवस्था ऊर्जा सहित अन्य कॉमोडिटी के उत्पादन और मैनुफैक्चरिंग के विस्तृत जाल पर आधारित है। लेकिन इन समूहों के सदस्य देशों में अपवाद भी हैं और उनके सामने ही चयन की सबसे कठिन चुनौती है। इन देशों में भारत भी शामिल है।

दूसरी तरफ डॉलराइज्ड वित्तीय पूंजीवाद की व्यवस्था है, जिसके संचालक देश अपनी उत्पादक क्षमता गंवा चुके हैं। उनकी यही मजबूरी है, जिसने उन्हें चीन के साथ संबंध बनाए रखने को मजबूर किया है। अमेरिका और उसके खेमे के देश चार साल तक चीन से संबंध विच्छेद की दिशा में बढ़ने का इरादा जताते रहे। लेकिन फिर उन्हें अहसास हुआ कि ऐसा करना संभव नहीं है। तब से उन्होंने संबंध विच्छेद (decoupling) के बजाय संबंध में निहित कथित जोखिम को घटाने (de-risking) की नीति अपनाई है। 

बहरहाल, यह तो अब साबित हो चुका है कि वित्तीय पूंजीवाद किसी भी देश की पूरी आबादी की खुशहाली का सिस्टम नहीं है। इसमें विषमता का बढ़ना लाजिमी है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में एक फीसदी बनाम 99 फीसदी जैसी बहसें तीखी होती गई हैं। नतीजा तीखा राजनीतिक ध्रुवीकरण है, जो उन समाजों में अस्थिरता पैदा कर रहा है। दूसरी तरफ उत्पादक अर्थव्यवस्था को अपना चुके देशों ने ऐसी मजबूती हासिल की है, जिसमें आम आबादी का जीवन स्तर भी उठा है।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, भू-राजनीतिक अंतरराष्ट्रीय ध्रुवीकरण और व्यवस्थाओं के बंटने के इस दौर में बहुत से ऐसे देश हैं, जिनके लिए यह चयन करना कठिन चुनौती बना हुआ है। ऐसे देश फिलहाल दोनों गुटों के साथ संपर्क और संबंध बनाए रखने की नीति पर चल रहे हैं। दुर्भाग्य से उनमें भारत भी है, जबकि इतने बड़े देश से यह स्वाभाविक अपेक्षा रहती है कि वह नई परिघटना के बीच नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाले देशों में शामिल हो। मगर भारतीय शासक वर्ग अपने हितों की रक्षा की कोशिश में इस अपेक्षा के विरुद्ध काम कर रहा है।

मगर अब यह भी साफ है कि दोनों तरफ पांव रखने की नीति अब अपनी हद पर पहुंच रही है। यानी अब वह मुकाम दूर नहीं है, जब साफ तौर पर एक पक्ष को चुनना होगा। डॉलराइज्ड व्यवस्था के साथ चलना शासक वर्गों के लिए इस लिहाज से भी सुविधाजनक है कि उसमें आर्थिक यथास्थिति को बरकरार रखते हुए वे आगे बढ़ सकते हैं। जबकि नई बन रही अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ना तभी कारगर और फलदायी होगा, जब उत्पादक अर्थव्यवस्था निर्मित करने की नीतियां भी साथ-साथ अपनाई जाएं।

कहा जा सकता है कि इतने बड़े दिशा परिवर्तन के अनुकूल बौद्धिक और राजनीतिक माहौल फिलहाल भारत में नहीं है। नतीजतन, ना तो भारत से दुनिया में किसी नेतृत्वकारी भूमिका की उम्मीद फिलहाल संजोयी जा सकती है, और ना ही देश के अंदर नीतियों में सार्थक बदलाव की आशा अभी की जा सकती है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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