जनसंख्या नियंत्रण कानून के बहाने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश

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असम सरकार द्वारा कुछ समय पूर्व लागू की गई जनसँख्या नियंत्रण नीति के अंतर्गत दो से अधिक संतानों वाले अभिवावक, स्थानीय संस्थाओं के चुनाव नहीं लड़ सकेंगे और अगर वे सरकारी नौकर हैं तो उनकी पदोन्नति पर विचार नहीं किया जायेगा। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने एक नया कानून प्रस्तावित किया है। इसका नाम है उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण व कल्याण) विधेयक 2021। ऐसा दावा किया जा रहा है कि इस नए कानून से जनसँख्या को नियंत्रित और स्थिर किया जा सकेगा।  

ये दोनों राज्य जोर-ज़बर्दस्ती से जनसंख्या नियंत्रण करना चाह रहे हैं। वे प्रोत्साहन के ज़रिये कम और दबाव के ज़रिये ज्यादा काम करना चाहते हैं। यह सही है कि परिवार कल्याण, किसी भी देश की स्वास्थ्य योजना का हिस्सा होना चाहिए। परन्तु इन दोनों राज्यों की सरकारें पूर्वाग्रहों और एक-तरफ़ा समझ से प्रेरित हैं। जहाँ तक जनसंख्या नियंत्रण का प्रश्न है, भारत ने 1952 में ही जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम लागू कर दिया था। उस समय तक दुनिया के बहुत कम देश इस दिशा में सोच रहे थे। पहले इस कार्यक्रम को ‘परिवार नियोजन’ अर्थात, बच्चों की संख्या पर नियंत्रण के उपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया। बाद में इसे अधिक उपयुक्त नाम- ‘परिवार कल्याण’ – दिया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य केवल प्रति दंपति बच्चों की संख्या कम करना नहीं था।

इन नीतियों और कार्यक्रमों का असर हमारी जनसंख्या और महिलाओं की प्रजनन दर पर अब दिखाई दे रहा है। कुल प्रजनन दर (प्रति महिला बच्चों की संख्या) सन 1980 में 4.97 थी, जो अब घट कर 2.1 रह गई है। यह परिवर्तन उन नीतियों और कार्यक्रमों का नतीजा है तो पहले से चल रहे हैं।  एस.वाई. कुरैशी, जिनकी पुस्तक, “द पापुलेशन मिथ: इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया’ इस मुद्दे पर समुचित प्रकाश डालती है, के अनुसार, देश के 29 में से 24 राज्यों में यह दर 2.17 के नजदीक आ रही है। यह प्रजनन दर, जनसंख्या के स्थिर हो जाने की सूचक होती है क्योंकि यह प्रतिस्थापन दर है। एनएफएचएस 5 के अनुसार, असम में प्रजनन दर 1.9 है।

संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्रवादियों को जनसंख्या के मामले में एक ही समस्या नजर आती है और वह यह कि मुसलमान जानबूझ कर अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं ताकि वे इस देश पर कब्जा कर सकें और उसे हिन्दू राष्ट्र बना सकें। परंतु आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। भारत की जनसंख्या नीति के बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं और सिवाए आपातकाल के दौरान संजय गांधी द्वारा चलाए गए बदनामशुदा नसबंदी कार्यक्रम के, इन नीतियों का देश की जनसंख्या के स्थिरीकरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। परंतु यह उन लोगों को दिखलाई नहीं देता जिनकी आंखों पर पूर्वाग्रहों की पट्टी बंधी हुई है। यह दिलचस्प है कि भाजपा का पूर्व अवतार जनसंघ परिवार कल्याण कार्यक्रमों के सख्त खिलाफ था। आज भी विहिप जैसे भाजपा के सहयोगी संगठन इसके सख्त खिलाफ हैं। अनेक स्वामी (साक्षी महाराज) और साध्वियां (प्राची) हिन्दू महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने का आह्वान करते रहे हैं। यहां तक कि आरएसएस के मुखिया केएस सुदर्शन ने भी हिन्दू महिलाओं से यह अनुरोध किया था कि वे ढेर सारे बच्चे पैदा करें।

कोई दम्पति कितने बच्चों को जन्म दे यह उस पर छोड़ देना बेहतर है या इस मामले में जोर-जबरदस्ती से काम लिया जाना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है। आपातकाल के दौरान पुरुषों की जबर्दस्ती नसबंदी करवाए जाने के बाद इस अत्यंत मामूली सी सर्जरी करवाने वालों की संख्या में जबर्दस्त कमी आ गई थी। सन् 1975 के पहले तक भारत पुरुषों की नसबंदी के मामले में दुनिया में सबसे आगे था। हमारे देश में हर साल लाखों नसबंदियां हुआ करती थीं। परंतु आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों के बाद इनकी संख्या में भारी कमी आई और यहां तक कि आज भी उनकी दर 1975 के पहले से कम है।

एक समय था जब दुनिया में कई लोग जनसंख्या नियंत्रण के लिए चीन की जोर-जबर्दस्ती की नीतियों के प्रशंसक थे। वहां की सरकार ने दम्पतियों पर यह नियम लाद दिया था कि वे एक से अधिक बच्चा पैदा नहीं कर सकते। परंतु दीर्घावधि में यह कार्यक्रम असफल हो गया और अब इसे पलटने की तैयारी चल रही है। चीन के अनुभव से यह साफ है कि जनसंख्या नियंत्रण के मामले में जोर-जबर्दस्ती कारगर नहीं होती। भारत ने अब तक इस मामले में मानवीय नीति अपनाई है। इसका अर्थ है यह समझना कि बच्चों की संख्या अभिभावकों के धर्म की बजाए इस बात पर निर्भर करती है कि उनका आर्थिक और शैक्षणिक स्तर क्या है और उन्हें किस प्रकार की स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। भारत का जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम, स्वास्थ्य और शैक्षणिक सुविधाओं को बेहतर बनाने और लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने पर आधारित है। इसके सकारात्मक परिणाम निकले हैं। आंकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि प्रति दम्पति बच्चों की संख्या का संबंध शैक्षणिक और आर्थिक स्तर से है। केरल, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान की हिन्दू महिलाओं से कम है।

संयुक्त राष्ट्र संघ का मंत्र है “शिक्षा सबसे बेहतरीन गर्भनिरोधक उपाय है।” यह भारत में स्पष्ट देखा जा सकता है जहां ऐसे राज्यों में परिवार कल्याण कार्यक्रम सबसे ज्यादा सफल हैं जहां साक्षरता दर और विशेषकर महिला साक्षरता दर अधिक है। भाजपा सरकारों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण के लिए बनाई जा रही नीतियों और कानूनों में धर्म की कोई चर्चा नहीं है परंतु यह साफ है कि इनके निशाने पर मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।

जब असली आवश्यकता शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम चलाने की है तब क्या कारण है कि कुछ मुख्यमंत्री जोर-जबर्दस्ती से जनसंख्या नियंत्रण करने का प्रयास कर रहे हैं? असम में हाल में चुनाव हुए हैं और वहां के नए मुख्यमंत्री जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर समाज का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करना चाहते हैं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि मुसलमानों को परिवार नियोजन अपनाना चाहिए। इससे पहले जून में उन्होंने एक विवादास्पद बयान में कहा था कि “अगर प्रवासी मुस्लिम समुदाय परिवार नियोजन कार्यक्रम अपना लें तो हम असम की कई सामाजिक समस्याओं को सुलझा सकते हैं”।  

हिन्दुत्व शिविर के कई जाने-माने महानुभावों ने इस मामले में मुसलमानों को निशाना बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा था कि “बढ़ती हुई आबादी, विशेषकर मुसलमानों की आबादी में वृद्धि, देश के सामाजिक ताने-बाने, सौहार्द और विकास के लिए खतरा है।” राजस्थान के भाजपा विधायक भंवरलाल का कहना था कि “मुसलमानों की एक ही चिंता है…कि किस तरह अपनी आबादी बढ़ाकर भारत पर कब्जा जमाया जाए”। तथ्य यह है कि मुसलमान बहुत तेजी से परिवार नियोजन उपाय अपना रहे हैं। उनकी आबादी की दशकीय वृद्धि दर, हिन्दुओं की तुलना में अधिक तेजी से घट रही है। अगर इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो सन् 2050 तक मुसलमानों की आबादी देश की कुल जनसंख्या के 18 प्रतिशत पर स्थिर हो जाएगी। जो लोग यह डर पैदा कर रहे हैं कि मुसलमान इस देश का बहुसंख्यक समुदाय बन जाएंगे और भारत को इस्लामिक राष्ट्र बना देंगे वे दरअसल हिन्दुओं को आतंकित कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं।

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि दो बच्चों के नियम का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी में संतुलन स्थापित करना है। उन्हें शायद पता ही होगा कि उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायकों में से आधे से अधिक के दो से ज्यादा बच्चे हैं। इस मुद्दे ने सोशल मीडिया में मुसलमानों के बारे में अपमानजनक टिप्पणियों की बाढ़ ला दी है। क्या हम उम्मीद करें कि हमारी राज्य सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन जैसे मुद्दों पर अपेक्षित ध्यान देंगीं?  (लेखक राम पुनियानी आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं। अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया ने किया है।)

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