मणिपुर हिंसा ने बढ़ाया अविश्वास, कल तक थे साथ – आज हैं एक-दूसरे के खिलाफ

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मणिपुर में चल रहे जातीय संघर्ष को एक महीना से ज्यादा समय बीत चुका है, और इस हिंसा ने मणिपुर की जनता के बीच की दूरियों को बहुत बढ़ा दिया। दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की भावना गहरी होती जा रही हैं, राज्य के नागरिक खुद को सुरक्षित रखने के लिये एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो रहें हैं और बीतते समय के साथ हर कोई हाथों में बंदूक उठा रहा है।

प्रदेश में तनाव की स्थिति बनी हुयी है और जमीनी हालात भी बदतर हो रही है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां मैतेई-प्रभुत्व वाले क्षेत्रों से पहाड़ी क्षेत्रों में जाने के लिए कुकी-आबादी का रास्ता है, लेकिन स्थिति अभी अनिश्चित और अप्रत्याशित बनी हुई है।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक मणिपुर के एक ही गांव के दो युवक अब एक दूसरे पर विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। 25 वर्षीय मैतेई समुदाय का युवक हार्डवेयर दुकान चलाता है तो 23 वर्षीय कुकी युवक शिक्षक हैं। दोनों ने पिछले कुछ सप्ताह गांव में बने बंकर में बिताए। लेकिन अब दोनों अपनी सुरक्षा के लिए बंदूक लेकर चल रहे हैं।    

यह है उनकी कहानी

दीमापुर-चुराचांदपुर राजमार्ग के पूर्व में, तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरे मैतेई गांव में, 25 वर्षीय व्यक्ति बताते हैं कि कैसे रात भर पहाड़ियों से गोलियों की आवाजें आती रहती है। रेत की बोरियों और टिन की छत से बने एक अस्थायी बंकर में, उन्होंने एक सिंगल बैरल बंदूक साथ रखकर रात बिताई, जबकि पहाड़ियों से आने वाली गोलियों की आवाज का जवाब मणिपुर पुलिस और ग्राम रक्षा बल (वीडीएफ) के कर्मियों के द्वारा दिया जाता है।

वह कहते हैं कि “मैं इस एक बैरल बंदूक से इतनी भारी गोलीबारी का मुकाबला नहीं कर सकता। ये बंदूक ठीक से फायर भी नहीं करती है, मेरा काम है बंकर पर अपनी पकड़ बनाए रखना, गतिविधियों पर नज़र रखना और वीडीएफ और पुलिस को समय-समय पर सूचित करना है, फिर वो जवाबी कार्रवाई करते हैं”।

बिष्णुपुर जिले के कॉलेज से स्नातक करने वाला लड़का, वह गांव के दक्षिण में बनी बंकर में हर दिन 12 घंटे से अधिक समय बिताता है। अन्य किसी भी दिनों के लिए, उसके साथ पांच और स्वयंसेवक होते हैं। वह कहते हैं, ”रात में यहां पर कम लोग होते हैं क्योंकि केवल साहसी लोग ही रात में बंकर में रुक सकते हैं”। वह बताते हैं कि, मात्र 350 मीटर की दूरी पर पहाड़ियों में, दूसरी तरफ एक कुकी बंकर है।

25 वर्षीय युवक चुराचांदपुर में हार्डवेयर की दुकान चलाता था, यह दुकान कुकी समुदाय के एक व्यक्ति के साथ साझेदारी में चलती है। और इस हिंसा में उनकी दुकान को नुकसान होने से बचा लिया गया है, क्योंकि उनका कहना है कि संपत्ति कुकी जमींदार की है।

मैतेई व्यक्ति बताते हैं कि, 3 मई को, जब हिंसा भड़की, तो उसके कुकी दोस्तों ने उसे चुराचांदपुर न जाने के लिए कहा था क्योंकि मैतेई को एसटी का दर्जा देने के मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ कुकी आदिवासियों के द्वारा निकाली गयी रैली के दौरान कुछ गलत होने की आशंका थी।

वह कहते हैं, ”हम ऐसी रैलियों के आदी हैं लेकिन मैंने नहीं सोचा था कि यह इतना ज्यादा भड़क जाएगा”। उन्होंने कुकी युद्ध स्मारक के पास एक टायर जलता हुआ देखा था और जैसे ही भीड़ हिंसक रुख अपनाने लगी, मैं घर चला गया। शाम करीब 5 बजे मुझे पता चला कि मैतेई गांवों में आगजनी हुई है।

वे कहते हैं “मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा कुछ भी यहां पर हो सकता है। मुझे बहुत बुरा लगा जब हमारे मंदिर को भी तोड़-फोड़ किया गया। हालांकि दोनों समुदायों के बीच हमेशा कुछ ना कुछ मतभेद रहता था, लेकिन ऐसी चीज आज से पहले कभी नहीं हुई थी,” और न ही किसी ने ऐसा उम्मीद किया था।

वह बताते हैं कि उस रात, हिंसा और आगजनी के डर से, कई मैतेई गांव छोड़कर जाने लगे थे। समय के साथ मैतेई लोगों पर खतरा बढ़ता जा रहा था, और आने वाले सात दिनों में पता चलता है कि कुछ खाली घरों को कुकी ने आग के हवाले कर दिया है।  

ऐसे समय में गांव की सुरक्षा को मद्देनजर रखते हुए वीडीएफ के तीन जवानों को गांव की सुरक्षा के लिए चुना गया। लेकिन 13 मई को मैतेई राहत शिविर पर कुकी समुदाय ने हमला कर दिया और गोलियां भी चलीं।

इतना कुछ बीत जाने के बाद “हम पुलिस के पास गए और असॉल्ट राइफलें मांगीं। लेकिन उन्होंने हमारी मांग को नकार दिया, असम राइफल्स के जवानों के साथ पुलिस की एक टुकड़ी गांव में आई और हमारी सुरक्षा का आश्वासन दिया। हालांकि इसके बाद भी आगजनी और फायरिंग की छिटपुट घटनाएं जारी रहीं।

वह कहते हैं, इसके बाद हमने फैसला किया कि हमें अपने गांव की रक्षा खुद करनी होगी और इसलिए हमने एक समिति गठित की। और इस तरह से गांव में पहला बंकर पूर्वी तरफ बनाया गया।

वह बताते हैं पहली भारी गोलीबारी 26 मई को हुई थी। गोलीबारी इतनी भारी थी कि कोई भी डर जाये और ऐसा ही हुआ वीडीएफ के लोग गोलीबारी की आवाज सुनकर भागने लगे। लेकिन फिर हम उन्हें किसी तरह से वापस लेकर आये।

25-वर्षीय व्यक्ति ने बंकर में कई दिन बिताए हैं, लेकिन आज भी गोलियों की आवाज से वो डर जाता है। वह कहते हैं, ”मेरे दोस्त अक्सर इसके लिए मेरा मजाक भी उड़ाते हैं”।

वो बताता हैं कि, उसे भरोसा नहीं है कि स्थिति जल्द सुधरने वाली है, और वह अपने उस जीवन के लिए तरस रहा है जो हिंसा से पहले हुआ करती थी। वह कहते हैं, ”अगर सब कुछ सामान्य हो गया तो मैं चुराचांदपुर वापस जाना चाहूंगा और अपनी दुकान पर काम फिर से शुरू करना चाहूंगा।”

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए आगे बताते हैं कि, कुछ किलोमीटर दूर एक मैतेई गांव है जो कुकी-समुदाय वाली पहाड़ियों की ओर जाने वाले मैदानी इलाकों के ठीक किनारे पर है। खुले मैदानों वाले इस गांव में 14 सैंडबैग बंकर हैं। बंकरों से परे गतिविधियों पर नजर बनाये रखने के लिए बाँस के खंभों पर हैलोजन बल्बों की एक कतार लगी हुई है।

इनमें से एक बंकर में एक 26 वर्षीय युवक कार्यरत है। हाल के समय तक, उसने कभी गोली नहीं चलाई थी या अपने हाथ में बंदूक नहीं लिया था। उन्हें और कुछ अन्य युवाओं को गांव रक्षण के लिए एक पूर्व-सेना अधिकारी द्वारा प्रशिक्षित किया जा रहा है, जिन्होंने प्रत्येक ग्राम रक्षक के लिए ड्यूटी रोस्टर और पहचान पत्र के साथ एक कार्यात्मक प्रणाली स्थापित की है।

सेवानिवृत्त अधिकारी बताते हैं कि “प्रत्येक बंकर की सुरक्षा 15 लोगों द्वारा की जाती है जो आपस में तीन बंदूकें साझा करते हैं। अधिकांश बंदूकें ग्रामीणों के पास हैं लेकिन हमें कुछ 303 राइफलें मिली हैं। विचार यह है कि बंकरों से निगरानी रखी जाए और आवश्यकता पड़ने पर गोली चलाई जाए।”  

26 वर्षीय व्यक्ति का कहना है कि वह हमेशा डरा हुआ रहता है कि किस वक्त कहां पर क्या हो जाये। “लेकिन कोई क्या करें, यह तो काम है जो हमे अपनी और गांव की सुरक्षा के लिए करना ही पड़ेगा। मेरी मां भी रात में सड़कों पर वाहनों की जांच करती हैं”।

अधिकारी लगातार अपनी दूरबीन को पहाड़ियों की ओर घुमाता रहता है। जब उनसे पूछा जाता है कि क्या वह पहाड़ों पर हो रहे गतिविधियों पर नजर रख रहे हैं, तो वो कहते हैं कि, “गतिविधि रात के समय में होगा। फिलहाल, मैं अपनी गायों की तलाश कर रहा हूं जो कुकी की तरफ भटक गई हैं।”

‘मेरे स्कूल के दोस्त मैतेई हैं, अब उनपर भरोसा कर पाना मुश्किल नहीं’

बांस की जाली के बाईं ओर, खेतों को जेसीबी से खोदकर सैनिकों की तरह खाइयां और बंकर बनाए गए हैं, जहां बंदूक लिये व्यक्ति दिन-रात मैतेई की ओर से होने वाली हरेक गतिविधि पर नज़र रखते हैं। सामने के खेतों में एक दर्जन से अधिक पम्पी गन, और बूबी ट्रैप लगे हुए हैं, जो गांव को घेरे हुए है।

एक बंकर में बंदूक के साथ एक 23 वर्षीय व्यक्ति कहता है “हमें अपने गांव की रक्षा के लिए पूरी तरह से तैयार रहना होगा। मैं यहां पैदा हुआ था, यहां हमारा बचपन बीता था, यहां से हमारी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं। हमारी जमीन, आजीविका सब कुछ यहीं है, हम किसी को इसे जलाने कैसे दे सकते हैं।

शिलांग के एक कॉलेज से स्नातक किया हुआ व्यक्ति, वह हिंसा शुरु होने से पहले तक चुराचांदपुर(जो कि एक बड़ा कुकी जिला है) में स्कूली छात्रों को विज्ञान, मैतेई भाषा और स्थानीय भाषा पढ़ा रहे थे। उसके पिता किसान हैं और उसका छोटा भाई शिलांग में पढ़ रहा है।

3 मई को, जिस दिन हिंसा शुरू हुई, गांव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर, 23 वर्षीय व्यक्ति घर पर था। वह कहते हैं “मैं विरोध रैली में शामिल नहीं हुआ था लेकिन मैंने सुना कि किसी ने उस दोपहर कुकी युद्ध स्मारक के गेट में आग लगा दी थी। तभी हमने एक गांव में फायरिंग की आवाज सुनी, हम सब डरे हुए थे। और जैसे ही आसपास के गांवों से आगजनी की खबर मिली, महिलाएं और बच्चे गांव छोड़कर चले गए, जबकि युवा वहीं रुक गए। उस रात, हमारे पास केवल चार सिंगल-बैरल बंदूक थीं। हम पूरी रात खेत में मेड़ों के पीछे बैठे रहे”।

वह कहते हैं कि, इसके बाद अगले दिन में, अन्य कुकी गांवों से लोग “ग्राम रक्षा” दल के शामिल हो गए, और छह बंकर बनाए गए। गांव में अब तक 20 बंकर हैं। “हिंसा के पहले सप्ताह में, हम मुश्किल से सोये, कुछ नियम बनाए गए, कोई भी घर नहीं जाएगा और खाना बंकर में पहुंचाया जाएगा। अब हमने एक रोजाना के लिए रोस्टर बनाया गया है और लोगों को बारी-बारी से ड्यूटी पूरा करना होता है”।

वह सुरक्षा को लेकर बताते हैं कि, चूंकि सभी हमले रात में होते हैं, इसलिए रात की ड्यूटी पर तैनात लोगों को बहुत सतर्क रहना पड़ता है। “रात के समय में पहरेदारी करना आसान नहीं है क्योंकि यहां घोर अंधेरा रहता है। लेकिन हम कुत्तों को खेतों में छोड़ देते हैं, जब भी उन्हें कोई हलचल महसूस होती है तो वे भौंकने लगते हैं और इस तरीके से हमें अनहोनी से सत्तर्क होने का मौका मिला जाता है”।

उनका कहना है कि जून में बारिश के कारण पहरेदारी करना मुश्किल हो गया है क्योंकि कुछ बंकरों में पानी भर गया है और बंकर के छत से बारिश का पानी गिरता रहता है।

वो घुसपैठ की जानकारी देते हुए बताते हैं कि, 5 मई को भीड़ ने उनके गांव पर हमला करने का प्रयास किया, लेकिन गांव की रक्षकों ने उन्हें नाकाम कर दिया। 11 मई को सुबह करीब 7.30 बजे गांव में फिर से आग लगा दी गई, जो करीब दो घंटे तक जारी रही। “उस दिन, गांव के रक्षकों ने गाँव के दूसरे किनारा से जो कि लगभग 900 मीटर दूर था, हमने लगातार फायरिंग की और पम्पी गन का भी इस्तेमाल किया। उस वक्त हमारे पास लगभग 15 बंदूकें थीं और तब जाकर वे पीछे हट गए”।

सेना के एक अधिकारी के अनुसार, हमलावरों ने पड़ोसी गांव में घुसने की कोशिश की, लेकिन रक्षकों द्वारा चलाई गई पम्पी गन ने न केवल एक वाहन को नष्ट कर दिया, बल्कि उस झड़प में एक पुलिसकर्मी की भी मौत हो गई। सुरक्षा सूत्रों ने कहा कि जब से उन्हें खदेड़ा गया है उसके बाद से, गांव पर घुसपैठ करने की कोशिशें कम हुईं, हालांकि 18 मई को कुछ गोलीबारी हुई और 26-27 मई को मोर्टार दागे गए।

वे कहते हैं कि, क्या गोलीबारी से उसे डर लगता है? “मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता है। विचार यह है कि हमें बने रहना क्योंकि समय पर मदद मिलेगी। मुझे बस कुछ समय के लिए घुसपैठ जैसी चीजों को रोक कर रखना होगा। यह एक ऐसा काम है जो मुझे करना है, और ऐसा करना हमारे संस्कृति का हिस्सा है क्योंकि हम पारंपरिक शिकारी हैं। यहां 10 साल का बच्चा भी बंदूक चलाना जानता है, हमारा पालन-पोषण ऐसे ही हुआ है”।

वह बताते हैं कि 3 मई से पहले, 23 वर्षीय व्यक्ति अपने मैतेई दोस्तों के साथ झील पर समय बिताता था। “स्कूल के मेरे ज्यादातर दोस्त मैतेई हैं। कुछ समय पहले तक हम दोनो एक-दूसरे के संपर्क में रहता था। लेकिन 3 मई के बाद से हालात बदल गयी है, हिंसा शुरु होने के बाद हमने बात नहीं की है। ऐसी स्थिति में, जहां पड़ोसियों ने एक-दूसरे के घर जला दिए हैं, दोस्तों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है”।

वह कहते हैं, मैं चाहता हूं कि स्थिति जल्द से जल्द सामान्य हो जाए। “मैं सशस्त्र बलों में शामिल होने के लिए परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूं। परीक्षा कुछ दिन पहले आयोजित की गई थी, लेकिन बिगड़ती स्थिति के कारण मैं परीक्षा में उपस्थित नहीं हो सका”।

(इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर पर आधारित, अनुवाद: राहुल कुमार)

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