स्वतंत्र पत्रकार और लेखक रूपेश कुमार सिंह 7 जून, 2019 से 5 दिसंबर, 2019 तक बिहार की दो जेलों में छह महीने तक काला कानून ‘यूएपीए’ के तहत कैद थे। 6 दिसंम्बर, 2019 को ये जमानत पर बाहर निकल गए, क्योंकि इनके मुकदमे के जांच अधिकारी ने 180 दिनों के अंदर चार्जशीट कोर्ट में जमा नहीं की। अपने 6 महीने के जेल जीवन को उन्होंने कलमबद्ध किया है, जो जेल डायरी के रूप में ‘कैदखाने का आईना’ नाम से प्रकाशित हुई है।
रूपेश की जेल डायरी ‘कैदखाने का आईना’ जेल जीवन के अनुभव की एक नयी कड़ी है, जहां अभी शोषित जनता के पक्ष में किसी भी रूप में आवाज उठाने वालों का सरकार द्वारा दमनकारी कानून के तहत दमन किया जा रहा है, जेलों में डाला जा रहा है, ऐसे में ‘कैदखाने का आईना’ की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। ऐसी किताबों की आज के समय में बेहद जरूरत है, ताकि हर इंसान सत्ता के साम्राज्यपरस्त-दलाल चरित्र को जान सके, जिन लोगों को देशद्रोही कहकर गिरफ्तार किया जा रहा है, उनकी गिरफ्तारी के पीछे के सच को जाना जा सके और यह जान सकें कि जनता के हित में काम करने वाले किसी भी इंसान को किस-किस तरह से फंसाया जाता है, साथ ही इनके द्वारा आज की जेलों की स्थिति को समझ सके। रूपेश कुमार सिंह के ही शब्दों में, जो उन्होंने किताब की भूमिका में लिखा है-
“जब मैं शेरघाटी सब-जेल (उपकारा) और गया सेंट्रल जेल में छह महीने रहा और वहां पर मैंने जो स्थिति देखी, उससे दुनिया को अवगत कराना मैंने अपनी जिम्मेदारी मान ली। मैंने इन दोनों जेलों के अंदर जो हालात देखे और उन बदतर हालातों के खिलाफ बंदियों के साथ मिलकर हमने जो संघर्ष जेल की चारदीवारी के अंदर चलाया, उसे भी आपलोगों को बताना जरूरी समझा, क्योंकि वर्तमान में ब्राह्मणवादी-हिंदुत्व-फासीवादी ताकतों की सरकार केंद्र और अधिकांश राज्यों में है और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वालों को जेलों में बंद किया जा रहा है।”
“आज पूरे देश में हमारी सरकारों द्वारा काला कानून यूएपीए के बेजा इस्तेमाल की घटनाएं लगातार देखने को मिल रही हैं। एक झूठी कहानी गढ़कर मेरे उपर भी बिहार पुलिस ने काला कानून यूएपीए की आधा दर्जन धाराएं समेत सीआरपीसी और आईपीसी की कई धाराएं लगाई थीं, इसलिए यूएपीए के एक आरोपी को जेल और न्यायालय में किन परिस्थितियों से गुजरना होता है, यह भी आप इस किताब में पढ़ेंगे।
मैंने यह किताब इसी उम्मीद से लिखी है कि इनके जरिए आप कैदखाने को दर्पण में देख सकें और आप भी भली-भांति जेल के अंदर के हालातों से परिचित हो सकें।”
यह किताब न्यायपसंद लोगों का सत्ता द्वारा अपहरण, मानसिक-शारीरिक टॉर्चर, झूठे मुकदमे चलाकर जेल में डालने और जीवन की पूरी धारा बदल देने पर आधारित है। भले ही आप पूरे निर्दोष हों, पर उस दौरान आपके खिलाफ चैतरफा हमले करके आपके नाम को पूरी तरह दुष्प्रचारित कर दिया जाता है और समाज में एक अपराधी के बतौर आपकी पहचान स्थापित करने की कोशिश की जाती है। ‘कैदखाने का आईना’ के शुरुआती अध्याय इस बात को स्पष्ट करते हैं कि क्यों और कैसे किसी जनपक्षधर को कॉरपोरेटपोषक सत्ता अपना शिकार बनाती है।
किस तरह से अपहरण के बाद डराए, धमकाए और लालच देकर उन बातों की स्वीकारोक्ति की पूरी कोशिश की जाती है, जो आपको उन अपराध का अपराधी बना सकता है जो आपने किया ही न हो, और आगे पढ़ने पर यह बात भी साफ हो जाती है कि पूरी तरह नकारने के बाद भी आप पर आरोप थोप दिए जाते हैं, जिसका स्पष्टीकरण तो होना दूर की बात बेल के लिए भी कम से कम छः महीने (नहीं तो कितना भी) समय लग ही जाते हैं।
संविधान और कानून की माला जपने वाला पूरा प्रशासनिक अमला किस तरह कानून की धज्जियां उड़ाते और संविधान का मखौल उड़ाते दिखते हैं। एक जगह जब लेखक डीएसपी रविश कुमार से यह पूछ रहे हैं कि आपको संविधान में विश्वास है? तब डीएसीपी ‘हां’ में उत्तर दे रहा है, और यह तब हो रहा है जब वह झूठी बरामदगी के लिए लेखक को अपने साथ लेकर जा रहा है। सिस्टम का मखौल उड़ाने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है।
लेखक ने अपनी कलम से इस बात को बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करने की कोशिश की है कि एक तरफ एक ही उद्देश्य की कड़ी के रूप में छोटे से बड़े अधिकारी तक एक आदेशपालक की तरह काम करते नजर आते हैं, तो दूसरी तरफ एक ही उद्देश्य (सत्ता के इशारे पर ईमान बेचकर काम करना) का हिस्सा होते हुए भी एक-दूसरे में जबरदस्त विद्वेष की भावना देखने को मिलती है। भले ही पुलिस-प्रशासन का हर हिस्सा बस आदेशपालक बना रहता है, मगर उनमें से कई के भीतर इस व्यवस्था को लेकर असंतोष और रोष की भावना नजर आती है, कई अपने काम की हीनता को समझते भी हैं, शर्मिंदा भी होते हैं पर लालच उन्हें इस अनैतिक कामों से जोड़े रखता है, अंततः सभी इस भ्रष्ट व्यवस्था की कड़ी बनकर रह जाते हैं।
शुरुआत के कुछ अध्यायों के बाद जेल व्यवस्था तथा वहां कैदियों की पूरी जीवन शैली से परिचित होते हैं। लेखक जब जेल व्यवस्था से परिचय करा रहे हैं, तब वहां की पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को उजागर कर रहे हैं, और हम पाते हैं कि सिस्टम में भ्रष्टाचार नहीं बल्कि जेल में भ्रष्टाचार ही सिस्टम है। यहां आरोप नहीं, कैदी की आर्थिक स्थिति उसके जेल स्थिति को निर्धारित करती है। लेखक ने खाने की व्यवस्था से ही जेल प्रशासन की पूरी वित्तपोषी चरित्र को उजागर कर दिया है। इस बात से हम समझ सकते हैं कि जेलों में भी गरीब-दलित-दमित लोग की स्थिति सबसे खराब होती है।
जब लेखक जेल व्यवस्था का वर्णन कर रहे हैं, तब एक मुलाकाती से लेकर खाने-पीने, अपनों से बातें करने (फोन पर) तक में किस तरह भ्रष्टाचार व्याप्त है, वह पूरी तरह साफ हो रहा है। यदि आप आर्थिक रूप से कमजोर हैं, तो जेल आपके लिए यातनागृह है। ऐसा लगता है कि हम समाज का ही छोटा रूप देख रहे हैं, जहां समाज का हर अंतर्रविरोध और समस्याएं मौजूद हैं। धार्मिकता, रूढ़िवाद, अंधविश्वास, भूत-प्रेत, जातिवाद हर तरह की समस्या यहां बिना इलाज के मर्ज की तरह देखने को मिलती है।
लेखक द्वारा अंधविश्वास पर एक पूरा अध्याय लिखा गया है, जहां पढ़ने पर हम पाएंगे कि किस तरह अंधविश्वास जेलों में जोर-शोर से विद्यमान है, जिसे जेल प्रशासन मिटाने के बजाय बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाते हैं। कैदियों को पढ़ने के लिए किताबें नहीं मिलतीं जो उनका मौलिक अधिकार है, मगर भूत भगाने के लिए पूजा-पाठ के सामान की पूरी व्यवस्था की जाती हैं। चाहे अंधविश्वास की कहानी हो या वर्चस्व द्वारा कमजोर पर दबदबा की कहानी, उस पर किसी तरह का कोई संवैधानिक सिस्टम कोई अंकुश नहीं लगाता।
सिस्टम और न्याय के नाम पर जेल का निरीक्षण भी खानापूरी भर होता है। कोई सरकारी कार्यक्रम भी नाम मात्र के लिए संपन्न किए जाते हैं, मगर उस नाम पर धनराशि जरूर जेल प्रशासन के खाते में आ जाती है। न्यायिक व्यवस्था की भी सारी प्रक्रिया संविधान में लिखित तरिकों से बिल्कुल इतर होता है, इसी वजह से कोई बिना अपराध के भी लंबे समय जेल में बिता देता है और कोई कैदी अपने अपराध से ज्यादा सजा भुगतता रहता है।
जेल को सुधारगृह कहा जाता है, पर अभी के लिए यातनागृह ही इसकी पहचान बन गई है। लेखक ने भी यहां अपराधियों के अपराध का जिस तरह से वर्णन किया है यह बात और स्पष्ट हो जाती है। जेल में हकीकत में 95 प्रतिशत केस में अपराध की असली जिम्मेदार व्यवस्था ही दिखती है और 70 प्रतिशत से ज्यादा निर्दोष ऐसे लोग हैं जिन पर अपराध थोपा गया है। जेल में सबसे बुरी हालत उनकी होती ही है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, लेकिन अगर वह जाति से दलित-आदिवासी या मुस्लिम हो, तब उसकी स्थिति और भी खराब होती है।
गया सेंट्रल जेल के अंडा सेल में बंद कैदियों की कहानी बड़ी ही मार्मिक है। बारा संहार के सजायाफ्ता कैदियों की कहानी और भी मार्मिक है। सजा का एक बड़ा कारण उनका दलित होना है। लेखक बताते हैं कि पूरी प्रशासनिक व्यवस्था में जातिवाद गहरे से हावी है। एक जगह लेखक कहते हैं,
“फिर तुरंत ही मोटर स्टार्ट कर पूरे हाजत को धुलवाया गया। हम लोगों के अनुरोध पर हमारी कार का तौलिया निकालकर हम लोगों को दिया गया। फिर हम लोगों ने एक-दो कंबल के ऊपर तौलिया बिछाकर सोने का इंतजाम किया। उधर दारोगा शिलानाथ सिंह ने एक टेबुल पंखा हाजत के बाहर लगवा दिया। मैं सोच रहा था कि अगर हमलोग राजपूत नहीं होते, तो क्या यह ऐसा ही व्यवहार करते? यह असंभव था। जातिवाद पूरे सरकारी सिस्टम में कूट-कूट कर भरा हुआ है और इससे बचना आदमी के लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है।”
लेखक अपनी जेल डायरी में बहुत से बिंदुओं को उजागर करते हैं। जिनसब का वर्णन यहां मुश्किल है। ढेर सारे रोचक अध्यायों के बीच जो सबसे रोचक अध्याय है वह है जेल की व्यवस्था परिवर्तन के लिए तमाम कैदियों का आंदोलित होना। लेखक एक उदासीन वातावरण में अपनी जेल डायरी बंद नहीं करते, बल्कि हमें एक रोचक तथ्यों की ओर ले जाते हैं और वह काफी उत्साहवर्धक होता है, क्योंकि यदि यातनागृह में ही संघर्ष की मशाल जलने लगे, तो दमनकारी सत्ता के पास कोई ऐसी जगह नहीं बचती जहां वे न्यायिक विचारों को कैद कर सके।
एक वृद्ध कैदी का बाकी भूख हड़ताल पर बैठे कैदियों के लिए खाना न खाने की जिद दिल को छू जाती है। जहां कैदी जेल के भ्रष्ट सिस्टम को चलाने में अपना सहयोग देते चले आ रहे थे, वैचारिक स्थान मिलने पर अपना सारा स्वार्थ त्यागकर एक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के साथ एकजुट होकर खड़े हो गए और तब तक खड़े रहे जब तक उनकी मांगें न मान ली गईं। भले ही बाद में नेतृत्वकारी ताकतों को जिसमें लेखक भी एक है, सजा के तौर पर दूसरी जेल (गया सेंट्रल जेल) ट्रांसफर कर दिया गया हो, पर कैदियों की अच्छी व्यवस्था के लिए संघर्षरत होना खुद में एक संघर्ष का अच्छी ‘मिसाल’ बन जाता है। लेखक की कलम अंततः यह बताती है कि संघर्ष का रास्ता हर जगह खुला है, चाहे वह खुला समाज हो, चाहे यातना का स्थल बना जेल।
किताब का नामः कैदखाने का आईना (जेल डायरी)
लेखक का नामः रूपेश कुमार सिंह (स्वतंत्र पत्रकार और लेखक)
प्रकाशकः प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई
मूल्यः 250 रूपये
किताब अमेजन पर उपलब्ध है।
- इलिका प्रिय
(लेखिका युवा कवि हैं।)