Tuesday, April 23, 2024

नव-उदारवाद ने भारत को बनाया या बिगाड़ा?

नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के जो परिणाम आज हम देख रहे हैं, उसके लिए सिर्फ मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराना इंसाफ नहीं होगा। बल्कि इसकी जिम्मेदारी उन तमाम सरकारों पर आएगी, जिन्होंने पिछले तीन दशक में इन नीतियों पर अमल और पालन किया है। उन नीतियों का क्या असर हुआ है, आइए, इस पर एक नजर डालते हैं। 

भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर मार्क्सवादी चिंतक और मशहूर अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने स्वतंत्रता के बाद भारत की पूरी आर्थिक यात्रा पर नजर डालते हुए एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा। उनकी इन पंक्तियों पर गौर कीजिएः ‘नव-उदारवाद फर्जी वादों के साथ आया। बेशक इसकी वजह से जीडीपी वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी हुई, लेकिन पहले की तुलना में रोजगार में वृद्धि की दर आधी- लगभग एक प्रतिशत प्रति वर्ष- रह गई। इसका कारण उच्च उत्पादकता दर है, जिसने श्रमिकों की जरूरत को घटाया है।…….नव-उदारवादी व्यवस्था ने किसानों और छोटे उत्पादकों (petty producers) को बाहर धकेलते हुए और संगठित मजदूरों की सौदेबाजी की क्षमता को घटाते हुए देश के श्रमिक वर्ग की प्रति व्यक्ति औसत आय को घटा दिया। इसका परिणाम गरीबी अनुपात में वृद्धि के रूप में सामने आया, भले जीडीपी वृद्धि दर कितनी ही ऊंची रही हो।

1980 के दशक के अंत तक देश में प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता बढ़ रही थी। उसके बाद यह वृद्धि ठहर गई। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के मुताबिक प्रति दिन न्यूनतम 2200 कैलोरी प्राप्त कर सकने वाली ग्रामीण आबादी की संख्या 1993-94 की तुलना में 2011-12 में घट गई। इस मामले में 2017-18 में एनएसएस के निष्कर्ष इतने निराशाजनक रहे कि मोदी सरकार उसे दबा दिया और उसके बाद पुराने रूप में एनएसएस ना कराने का फैसला किया। 1993-94 से 2011-12 के बीच शहरी इलाकों में भी न्यूनतम 2100 कैलोरी प्राप्त कर सकने वाली आबादी की संख्या 65 से घट कर 57 प्रतिशत रह गई।’

गौरतलब है कि  1970 के दशक में जब भारत में पहली बार गरीबी मापने की शुरुआत हुई थी, तो डीटी लक़ड़ावाला समिति ने न्यूनतम कैलोरी को इसे मापने का पैमाना बनाया था। वैसे भी भोजन सबसे बुनियादी जरूरत है। गरीबी घटने का ऐसा कोई पैमाना संदिग्ध ही माना जाएगा, जिसमें व्यक्तियों के लिए उपलब्ध भोजन और पोषण को सबसे ज्यादा अहमियत ना दी जाती हो। असल कहानी यह है कि नव-उदारवादी नीतियों को दुनिया भर में स्वीकृति दिलाने की कोशिश में विश्व बैंक ने प्रति दिन खर्च क्षमता का एक ऐसा न्यूनतम पैमाना प्रचारित किया, जिससे यह दिखाना संभव हो कि इन नीतियों पर अमल से गरीबी घटी है। इसी तरह मध्य वर्ग का एक खोखला कॉन्सेप्ट दुनिया में फैलाया गया। इसी आधार पर यूपीए के शासन काल में 27 करोड़ लोगों को गरीबी से निकालने और देश में नव-मध्य वर्ग के उदय का नैरेटिव फैलाया गया। अगर पड़ताल की जाए, इस नैरेटिव की पोल खुलने में ज्यादा देर नहीं लगती है।

वैसे अगर विश्व बैंक के पैमाने को भी मान लिया जाए, तो क्या सूरत उभरती है। कोरोना महामारी के बाद आई अमेरिकी संस्था पिउ रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग साढ़े 13 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो रोज दो डॉलर से कम पर जीवन गुजारते हैं। दो से दस डॉलर रोज खर्च क्षमता पर एक अरब दस करोड़ से अधिक लोग जी रहे हैं। दस से 20 डॉलर प्रति दिन खर्च क्षमता सिर्फ साढ़े छह करोड़ लोगों की है, जबकि डेढ़ करोड़ 20 से 50 डॉलर प्रति दिन पर खर्च करने की क्षमता रखते हैं। रोज 50 डॉलर से अधिक खर्च कर सकने की क्षमता सिर्फ 20 लाख लोगों की है। गौरतलब है कि डॉलर का मतलब सीधे अमेरिकी मुद्रा का भाव नहीं है। बल्कि यह परचेजिंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) की गणना पर आधारित है। 2011 में भारतीय शहरों में एक डॉलर का पीपीपी मूल्य 31 रुपये और गांवों में 27 रुपये आंका गया था। उसके बाद यह गणना ही नहीं की गई है। तो 75 साल की यात्रा के बाद भारतवासियों की अर्थव्यवस्था का यह स्वरूप है!

अभी हाल में ही जाने-माने अर्थशास्त्री प्रणब वर्धन ने भारत की पॉलिटिकल इकॉनमी की पड़ताल करते हुए एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा। इसमें उन्होंने कहा है- ‘भारतीय श्रमिक वर्ग की विशाल बहुसंख्या आज भी अनौपचारिक क्षेत्र में अथवा औपचारिक क्षेत्र में अनौपचारिक मजदूरों के रूप में है। भारत की सफलता की कहानियां पूंजी या कौशल केंद्रित मैनुफैक्चरिंग (ऑटो, औषधि) या कौशल केंद्रित सेवा क्षेत्र (सॉफ्टवेयर, वित्त और बिजनेस सेवाओं) में रही हैं। अन्य प्रकार की मैनुफैक्चरिंग के विस्तार की संभावनाएं कमजोर रही हैं, जहां कम कुशल मजदूरों को काम मिलने के बेहतर अवसर रहते हैं।…..कुल रोजगार में प्रतिशत के लिहाज से मैनुफैक्चरिंग का हिस्सा ठहराव का शिकार रहा है और पिछले कुछ वर्षों में तो इसमें गिरावट आई है।’

प्रणब वर्धन ने इस तथ्य का जिक्र किया है कि 1972 में नेशनल सैंपल सर्वे शुरू होने के बाद से भारत में रोजगार वृद्धि की रफ्तार धीमी रही है। 1999-2018 की अवधि में तो कम शिक्षित कर्मियों के लिए रोजगार के अवसर घट गए। इस तरह वर्धन ने इस धारणा की पुष्टि की है कि भारत की आर्थिक विकास यात्रा less jobs  से jobless और फिर job loss की तरफ गई है। बेरोजगारी के आंकड़ों में ये सच्चाई जाहिर नहीं होती है, क्योंकि अक्सर रोजगार ढूंढने में निराशा हाथ लगने के बाद श्रमिक खुद को श्रम बाजार से ही अलग कर लेते हैं। ऐसे लोगों की गणना रोजगार-बेरोजगार सर्वे में नहीं की जाती।

सेंटर फॉर मोनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में बताया है कि अगस्त 2022 में भारतीय श्रम बाजार में सिर्फ 39 करोड़ 94 लाख लोग ही थे। बाकी लोगों ने इस बाजार से खुद को अलग कर रखा था। महिलाओं में से तो सिर्फ लगभग 20 प्रतिशत ही इस बाजार का हिस्सा हैं। यह एक बड़ी दयनीय तस्वीर है। किसी भी सचमुच विकास कर रहे समाज में आम तौर पर 15 से 60 उम्र वर्ग के 60 से 70 प्रतिशत लोग श्रम बाजार का हिस्सा अवश्य होते हैं। भारत में ये संख्या 40 फीसदी से भी नीचे गिर चुकी है।

आखिर ये हाल क्यों है? बेशक इसकी बड़ी वजह नव-उदारवादी नीतियां हैं, जिनमें जोर पूंजी और निवेशकों के लिए मुक्त बाजार पर होता है। ऐसे में रोजगार प्राथमिकता ही नहीं रही जाती। मगर बात सिर्फ इतनी नहीं है। प्रणब वर्धन ने लिखा है कि बड़ी ढांचागत और संस्थागत समस्याओं ने भारत की विकास संभावनाओं को रोक रखा है। उन्होंने ऐसी इन पांच समस्याओं का उल्लेख किया हैः कमजोर इन्फ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण की खराब स्थिति, स्वास्थ्य और स्वच्छता की अनदेखी, पर्यावरण का क्षरण, और राज्य की कमजोर क्षमता।

दरअसल, राज्य की कमजोर क्षमता का संबंध इन सभी पहलुओं से है। भारतीय राज्य पहले भी विकास संबंधी क्षमता के लिहाज से कमजोर था। लेकिन 1991 में नव-उदारवादी नीतियों को अपनाए जाने के साथ पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनॉल्ड रेगन की इस सूक्ति को मूलमंत्र के रूप में अपना लिया गया कि ‘सरकार समाधान नहीं है, बल्कि सरकार ही समस्या है।’ तो राज्य ने जिन क्षेत्रों को नियंत्रित और नियोजित करने की अपनी क्षमता बनाई थी, उसे भी धीरे-धीरे खत्म करने की शुरुआत हो गई। 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के योजना आयोग को समाप्त करने के फैसले के साथ ये परिघटना अपने चरम बिंदु पर पहुंच गई।

राज्य की क्षमता उसके पास मौजूद संसाधनों, अर्थव्यवस्था को नियोजित कर पाने की उसकी इच्छाशक्ति, प्रशासनिक कौशल की संस्कृति, राजकाज में पारदर्शिता, प्रशासनिक तंत्र के आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के कौशल आदि से बनती है। गौर करें, तो इन पहलुओं में भारतीय राज्य कमजोर पड़ता गया है। ऐतिहासिक रूप से किसी भी देश के विकास और वहां के आम जन की खुशहाली में सार्वजनिक क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। बीते तीन दशकों में इस क्षेत्र से तौबा कर लिया गया है। अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश गिरता चला गया है। जबकि अगर चीन से तुलना करें, तो वहां आज भी कुल निवेश में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा 40 प्रतिशत से अधिक है। और दोनों देशों की आर्थिक स्थिति में क्या फर्क है, यह आज बताने की जरूरत नहीं है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ ही आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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