भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के विरुध्द संघर्ष के सर्वश्रेष्ठ अगुआ हैं आंबेडकर

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डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के साथ-साथ, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। आंबेडकर का जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार में हुआ था। आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की भेदमूलक वर्ण व्यवस्था, और भारतीय समाज में सर्वव्याप्त जाति व्यवस्था के विरुध्द संघर्ष में बिताया। यह एक सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि अनेकों सामाजिक और वित्तीय बाधाएं एवं विसंगतियां पार कर आंबेडकर ने कॉलेज की उच्च शिक्षा प्राप्त की। आंबेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही विधि, अर्थशास्त्र व राजनीतिक विज्ञान में अपने अध्ययन और अनुसंधान के कारण कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से कई डॉक्टरेट डिग्रियां भी अर्जित कीं। 

आंबेडकर वापस अपने देश एक प्रसिध्द विद्वान के रूप में लौट आए और इसके बाद कुछ साल तक उन्होंने वकालत का अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने अध्यापन कार्य किया तथा दलित स्थितियों के सन्दर्भ में पत्रिका प्रकाशन किया, जिनके द्वारा उन्होंने भारतीय अस्पृश्यों के राजनैतिक अधिकारों और सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत की। छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष: भारत सरकार अधिनियम 1919, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर आंबेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, आंबेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की। 1920 में, बंबई में, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया, तब, आंबेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। 

उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राय के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका आंबेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज में हलचल मचा गया। आंबेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली, और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् 1926 में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन 1927 में डॉ. आंबेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महाड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।

आंबेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ में संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। आंबेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू करने के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हें हर क्षेत्र में अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 

26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपनाया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, आंबेडकर ने कहा- मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था। 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद आंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बड़ी अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। 

आम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी की आलोचना की, उन्होंने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।

“हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं … राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा…. उनको शिक्षित होना चाहिए …. एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।”

इस भाषण में आम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। आम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं में भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होंने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये “उदार” राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। आम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय में बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 में लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यहां उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। 

धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढ़ी को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी। 1932 मे जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की,तब गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें कीं। 

अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते आंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छुआ-छूत ख़त्म करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया। आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उमीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उमीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए। आंबेडकर 20-25 साल के लिये आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र 5 साल के लिए ही लागू हुआ। पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। 

ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे आम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दबाव डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योति राव फुले थे। आंबेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और मृत्युपर्यंत वे इस सदन के सदस्य रहे।

अब बात बाबरी मस्जिद विध्वंस की, जिस हिन्दू वर्चस्व के खिलाफ डॉ. आंबेडकर ने एक लम्बी लड़ाई लड़ी उसके जहरीले फन की फुफकार लगातार और तेज होती गई है। दलित स्वाभिमान अगर उनके आड़े आता रहा है तो अल्पसंख्यकों पर भी वे हमेशा जहर की बौछार करते रहे हैं। 

कोबरा पोस्ट ने रामजन्म भूमि आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले 23 लोगों पर ऑपरेशन जन्मभूमि के नाम से स्टिंग ऑपरेशन किया। इसमें दावा किया गया कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाने की योजना संघ परिवार की अलग-अलग शाखाओं ने बनाई थी, जिसे संघ के प्रशिक्षित स्वयंसेवकों ने अंजाम तक पहुंचाया था। यह माना जाता है कि 16वीं सदी की बाबरी मस्जिद के ढांचे को उन्मादी भीड़ ने ढहा दिया था। असल में छह दिसंबर 1992 को गिराए गए विवादित ढांचे को लेकर संघ परिवार ने कई सतह पर काम किया था और इसके लिए लोगों को तैयार किया था। कोबरापोस्ट का दावा है कि बाबरी विध्वंस का षड्यंत्र दो उग्र हिंदुवादी संगठनों विश्व हिन्दू परिषद और शिवसेना ने अलग-अलग रचा था। इन दोनों संगठनों ने 6 दिसंबर से काफी समय पहले अपनी कार्ययोजना के तहत अपने कार्यकर्ताओं को इस मकसद के लिए प्रशिक्षण दिया था। आरएसएस के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं का एक आत्मघाती दस्ता भी बनाया गया था, जिसको बलिदानी जत्था भी कहा गया। 

विहिप की युवा इकाई बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने गुजरात के सरखेज में इस मकसद के लिए एक महीने का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था। स्वयंसेवकों को एक महीने पहले तक यह नहीं बताया गया था कि उन्हें क्या करना है। जून 1992 में बजरंग दल ने अपने 38 सदस्यों को एक महीने की खास ट्रेनिंग दी थी। ट्रेनिंग का जिम्मा पूर्व सैनिकों ने संभाला था इसके बाद एक अतिगोपनीय बैठक में वीएचपी ने इन 38 स्वयंसेवकों को लक्ष्मण सेना बनाने को कहा था। 

इस प्लान के फेल होने पर शिवसेना ने प्लान “बी” भी बनाया था। इसमें डाइनामाइट से बाबरी के ढांच को उड़ाने का प्लान था। इसके आखिर में कथित तौर पर पेट्रोल बम के इस्तेमाल का भी प्लान था। शिवसेना ने भी अपने कार्यकर्ताओं के लिए ऐसा ही एक प्रशिक्षण कैंप भिंड-मुरैना में आयोजित किया था। इस प्रशिक्षण में लोगों को पहाड़ियों पर चढ़ने और खुदाई करने का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ शारीरिक व्यायाम भी कराया जाता था। 6 दिसंबर को मस्जिद को तोड़ने के मकसद से छैनी, घन, गैंती, फावड़ा, सब्बल और दूसरे तरह के औजारों को खासी तादाद में जुटा लिया गया था। 6 दिसंबर को ही लाखों कारसेवकों को एक संकल्प भी कराया गया था।

इस संकल्प में विवादित ढांचे को गिरा कर उसकी जगह एक भव्य राम मंदिर बनाने की बात कही गयी थी। राम कथा मंच से संचालित इस संकल्प में आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर और आचार्य धर्मेन्द्र सहित कई जाने माने नेता और संत थे। यह संकल्प महंत रामविलास वेदांती ने कराया था। कहा जाता है कि संकल्प के होते ही बाबरी मस्जिद को तोड़ने का काम शुरू कर दिया गया। इन्हीं जहरीली ताकतों ने सन 2002 में गुजरात में नरसंहार को अंजाम दिया था। अब और उसकी सहयोगी फासिस्ट ताकतें क्या गुल खिलाने की जुगत में हैं पता नहीं। लेकिन मानवता के विनाश के लक्षण अब साफ नजर आने लगे हैं, जो इनके खिलाफ बोलेगा मिटा दिया जायेगा। लेकिन यह बात अगर भारत की जनता समझ जाये तो परिणाम विपरीत भी हो सकता है।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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