भारत के गरीब, मध्यवर्ग और अमीर कैसे जी रहे हैं? आंकड़ों के आइने में देखें असल तस्वीर!

शायद आपको यह जानकर हैरत हो कि अगर आप हर महीने 25 हजार रुपये या उससे ज्यादा कमाते हों, तो आप देश की सर्वाधिक आमदनी वाली टॉप दस प्रतिशत आबादी का हिस्सा हैं। इसे दूसरे रूप में इस तरह कहा जा सकता है कि भारत में 25 हजार रुपये से कम आमदनी वाले लोगों की संख्या 90 प्रतिशत है।

अब एक और आंकड़ा देखिये। साल 2019-20 में कुल कमाया गया सालाना वेतन 1,869 करोड़ रुपये रहा। इसमें 127 करोड़ रुपये आबादी के सबसे धनी टॉप एक प्रतिशत हिस्से की झोली में गए थे। जबकि निचली दस फीसदी आबादी की जेब में महज 32.10 करोड़ रुपये गए। मतलब यह हुआ कि टॉप एक फीसदी आबादी की आमदनी निचली दस फीसदी जनसंख्या की तुलना में तीन गुना ज्यादा थी।    

अब एक आंकड़ा। साल 2018-19 और 2019-20 के आंकड़ों के मुताबिक भारत के श्रम बाजार में मौजूद 15 प्रतिशत कर्मियों की सालाना आमदनी 50 हजार रुपये से कम थी। यानी हर महीने चार हजार रुपये से कुछ ज्यादा।

अब गौर कीजिएः जिस परिवार की मासिक आमदनी चार हजार रुपये के आसपास हो, उसके उपभोग का स्तर क्या होगा? क्या वह परिवार रोटी-कपड़ा-मकान जैसी बुनियादी जरूरतों और शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बेहतर सेवाओं का उपभोग करने की स्थिति होगा?

इस चर्चा को और आगे बढ़ाएं, उसके पहले यह जान लेना जरूरी होगा कि जिन आंकड़ों का हमने ऊपर जिक्र किया है, उनका स्रोत क्या है। ये आंकड़े कुछ समय पहले प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने जारी किए। परिषद ने भारत में आर्थिक गैर-बराबरी पर अध्ययन करने का काम थिंक टैंक- इंस्टीट्यूट फॉर कॉम्पीटीटिवनेस (IFC) को सौंपा था। इस संस्था ने जो रिपोर्ट तैयार की, उसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की ओर से जारी किया गया। इस संस्थान ने परिवारों की आमदनी का स्तर जानने के लिए अन्य आंकड़ों के साथ सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey-PLFS) से प्राप्त आंकड़ों का इस्तेमाल किया। यानी आंकड़े सरकारी हैं और भारत सरकार की पहल पर ही ये रिपोर्ट तैयार की गई है।    

साल 2019-20 तक के आंकड़ों का इस्तेमाल करने का भी संभवतः एक तर्क है। उसके बाद के दो वित्त वर्ष कोरोना महामारी और उस वजह से बार-बार लगाए गए लॉकडाउन से प्रभावित रहे। तमाम सर्वेक्षणों और अध्ययनों से यह बात सामने आती रही है कि महामारी के बाद आम जन की आमदनी में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। अर्थव्यवस्था में कथित सुधार बताया जाता है, दरअसल उसका स्वरूप (अंग्रेजी के अक्षर) K आकार का है। यानी जो तबके ऊपर हैं, उनकी आमदनी और धन में इस दौर में और तेजी से इजाफा हुआ है, जबकि जो तबके पहले से नीचे थे, उनकी स्थिति बिगड़ी है या अधिक से अधिक पहले जैसी ही बनी हुई है।

बहरहाल, अगर हम भारत की कुल आबादी को आय वर्ग के बंटवारे के आधार पर देखना और समझना चाहें, तो IFC की अध्ययन रिपोर्ट उसका एकमात्र स्रोत नहीं है। बल्कि उससे भी कहीं अधिक आधिकारिक स्रोत भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े हैं। लेकिन इसके पहले की हम रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर आएं, बढ़ती गैर-बराबरी पर रोशनी डालने वाले कुछ कई अन्य स्रोतों (यानी उनसे प्राप्त आंकड़ों) पर एक नजर डालते हैं:

लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स के रिसर्चर मैत्रेश घटक ने अपने अनुसंधान के आधार पर 2021 में बताया था कि 1990 तक भारत में टॉप एक प्रतिशत आबादी के पास देश का 10 से 16 प्रतिशत तक धन था। लेकिन 2020 में यह आंकड़ा 42.5 प्रतिशत तक पहुंच गया। जबकि देश के कुल धन में नीचे की 50 फीसदी आबादी का हिस्सा 2020 में सिर्फ 2.8 प्रतिशत रह गया। (मैत्रेश घटक के मुताबिक 1961 में नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास कुल धन का 12.3 प्रतिशत हिस्सा था।)

फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के अध्ययन के मुताबिक 1980 में टॉप एक प्रतिशत आबादी के पास भारत का छह प्रतिशत धन था, जो 21वीं सदी का दूसरा दशक आते-आते 22 प्रतिशत तक पहुंच गया।

समाज में आर्थिक गैर-बराबरी मापने का एक पैमाना गिनी कॉ-इफिशिएंट (Gini coefficient) है। इस पैमाने पर भी भारत में पिछले तीन दशकों में लगातार गैर बराबरी बढ़ने के संकेत मिले हैं। इस दौर में जहां अरबपतियों की संख्या बढ़ी है, वहीं आमदनी और धन के लिहाज से आबादी के निचले हिस्सों की आबादी की जेब खाली होती गई है।

यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए 1980 और खासकर 1990 के बाद का दौर नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाने और उन अंधाधुंध अमल का समय रहा है।

तो अब भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर आते हैं। इस वर्ष अप्रैल में रिजर्व बैंक की उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण (consumer confidence survey) रिपोर्ट जारी हुई थी। उसमें 2021 की स्थिति के हिसाब से भारत में विभिन्न आय वर्गों में मौजूद आबादी के प्रतिशत की जानकारी दी गई। इसके मुताबिक,

  • भारत में सालाना एक लाख रुपये या उससे कम आमदनी वाले लोगों की संख्या कुल आबादी में 38.6 प्रतिशत है।
  • एक लाख से तीन लाख सालाना आय वर्ग में 49 प्रतिशत लोग हैं।
  • तीन लाख से पांच लाख रुपये तक के आय वर्ग में 8.5 प्रतिशत लोग हैं।
  • और, भारतीय आबादी के सिर्फ चार प्रतिशत आबादी की सालाना आमदनी पांच लाख रुपये से अधिक है। 

इसी रिपोर्ट में भारतीय आबादी की संचरना को एक और कसौटी पर देखा गया हैः 

  • भारतीय आबादी में सिर्फ 27.7 फीसदी ऐसी नौकरी में है, जहां नियमित वेतन मिलता है।
  • 21.5 फीसदी लोग स्वरोजगार से गुजारा कर रहे हैं। (हाल में अशोक मोदी सहित कई अर्थशास्त्रियों ने बताया है कि भारत में स्वरोजगार का मतलब अर्ध या आंशिक रोजगार भी होता है- अक्सर ऐसे लोग जो नियमित रोजगार नहीं खोज पाते, वे कुछ ना कुछ करके गुजारा चलाते हैं, जिन्हें सरकारी सर्वेक्षणों में स्वरोजगार में लगे कर्मी बताया जाता है।)
  • भारत की आबादी में 9.1 प्रतिशत लोग दिहाड़ी मजदूर हैं।
  • रिजर्व बैंक के मुताबिक 26.8 फीसदी आबादी होममेकर यानी गृहणियों की है। (स्पष्टतः आबादी का यह हिस्सा रोजगार से बाहर है।)
  • रिटायर्ड या पेंशनभोगी लोगों की संख्या चार प्रतिशत है,
  • जबकि 11.1 प्रतिशत लोगों को बेरोजगार या छात्र की श्रेणी में रखा गया है।

यह बात तथ्यों और ठोस तर्क के आधार पर कही जा सकती है कि अगर स्वरोजगार और होममेकर श्रेणी में मौजूद व्यक्तियों की इच्छा और मजबूरी का वस्तुगत आकलन किया जाए, तो बेरोजगार लोगों की संख्या काफी अधिक नजर आएगी।

चूंकि इस लेख में हम आमदनी के आधार पर भारतीय आबादी के स्वरूप को समझने की कोशिश कर रहे हैं, तो उपरोक्त आंकड़ों से इस बारे में हमारे सामने ठोस तस्वीर उभरती है। इस तस्वीर की पुष्टि आय कर भुगतान के आंकड़ों से भी होती है।

भारत की 140 करोड़ आबादी में से 2020-21 वित्त वर्ष में आय कर चुकाने वाले लोगों की संख्या आठ करोड़ 13 लाख 22 हजार से कुछ ज्यादा रही। यानी भारतीय आबादी में कुल छह से सात प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जिनकी आमदनी साल में पांच लाख रुपये या उससे ज्यादा है। (अगर कई तरह की मिलने वाली छूट को भी शामिल कर लें, तो यह असल में टैक्स भुगतान की आमदनी सीमा लगभग सात रुपये सालाना मानी जा सकती है। लेकिन उस स्थिति में भी 50-55 हजार रुपये महीने से ज्यादा आमदनी वाले लोगों की संख्या आठ करोड़ से कुछ ही अधिक बैठेगी।)

अमेरिका के जाने-माने संस्थान Pew Research ने साल 2021 में भारतीय आबादी के विभिन्न आय वर्गों के बारे में अपना एक आकलन पेश किया था। इसके मुताबिक,

  • भारत में उच्च आय वर्ग वाले लोगों की संख्या लगभग 20 लाख है। (Pew Research ने उच्च आय वर्ग श्रेणी में उन लोगों को रखा, जिनकी रोजाना आमदनी 50 डॉलर- मोटे तौर पर चार हजार रुपये प्रति दिन से ज्यादा है।)
  • उच्च मध्यम वर्ग में शामिल लोगों की संख्या 2021 में एक करोड़ 60 लाख थी। (उच्च मध्यम वर्ग में रोजाना 20 से 50 डॉलर तक की आय वाले लोगों को रखा गया)
  • मध्य वर्ग में छह करोड़ 60 लाख लोग बताए गए। (रोजाना आमदनी 10 से 20 डॉलर)
  • निम्न मध्य वर्ग सबसे बड़ा तबका है, जिसमें एक अरब 16 करोड़ मौजूद हैं (प्रतिदिन आय 2 से 10 डॉलर तक)
  • Pew Research ने 13 करोड़ 40 लाख लोगों को गरीबी रेखा के नीचे बताया। (रोजाना आय दो डॉलर- यानी 170 रुपये से कम)।

स्पष्टतः गरीब, निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग के जो पैमाने Pew Research ने अपनाए हैं, वो न्यूनतम हैं। 800 से 1700 रुपये तक की रोजाना आमदनी का मतलब लगभग 25 हजार से 45 हजार रुपये की मासिक आमदनी है। जिस देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी सारी सेवाएं प्राइवेट सेक्टर में हों और खासी महंगी हों, वहां इतनी आय वाला व्यक्ति अपने चार सदस्यों के परिवार के साथ उस उपभोग की कल्पना नहीं कर सकता, जिससे वैश्विक स्तर पर मध्य वर्ग का बोध होता है।

बहरहाल, अगर Pew Research के आंकड़े भी वर्गीय संरचना के मामले में भारतीय आबादी के उसी स्वरूप की पुष्टि की करते हैं, जो आय कर और रिजर्व बैंक आंकड़ों से सामने आता है और IFC की हालिया रिपोर्ट ने जिससे हमारा फिर परिचय कराया है।

तो, असल सवाल यह है कि इन आंकड़ों के आधार पर अपने देश के बारे में किस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है? कुछ बातें तो बिल्कुल साफ हैं:

  • भारत आज भी मोटे तौर पर गरीब लोगों का देश है, जहां 90 प्रतिशत आबादी 25 हजार रुपये तक की आमदनी पर अपना परिवार चलाती है।
  • आबादी की इस वर्गीय संरचना का मतलब है कि भारत की आबादी भले दुनिया में अब सबसे ज्यादा हो गई हो, लेकिन भारत के उपभोक्ता बाजार का आकार काफी छोटा है। अगर ऊंचे उपभोग के लिहाज से इस बाजार पर गौर करें, तो आठ से दस करोड़ लोग ही इसका हिस्सा नजर आएंगे।
  • लेकिन ये ही वो लोग हैं, जो भारत का शासक वर्ग हैं। मीडिया से लेकर यूनिवर्सिटीज और थिंक टैक्स तक पर इनका नियंत्रण है। इस कारण वे देश के जनमत को अपने माफिक ढालने में सफल हो जाते हैं। यानी देश के नैरेटिव पर इनका पूरा कंट्रोल है। इसलिए पूरा सिस्टम उनके हितों के मुताबिक चल रहा है।
  • अगर आप पिछले तीन दशक में अपनाई गई आर्थिक नीतियों पर गौर करें, तो उनमें से ज्यादातर नीतियां आबादी के इस हिस्से के हितों को साधती हुई ही नजर आएंगी। इस दौर में जो विकास हुआ है, वह इन तबकों की जिंदगी को सुविधाजनक बनाने के लिए होता हुआ दिखेगा।
  • मसलन, इन्फ्रास्ट्रक्चर को लें। देश में सड़कें खूब बनी हैं, लेकिन इनमें से अगर ज्यादातर सड़कें पब्लिक-प्राइवेट पार्टरनरशिप के तहत बनी हैं, तो ऐसे मार्गों पर जो टोल टैक्स लगता है, वह स्वतः ही इनका इस्तेमाल सीमित कर देता है। वैसे भी इन सड़कों ने प्राइवेट परिवहन- खास कर कार यात्रा- को सुविधाजनक बनाया है। गौरतलब है कि देश में लगभग सात-आठ फीसदी आबादी के पास ही कारें हैं। इसी तरह अगर हवाई अड्डे बने हैं, तो यह बात ध्यान में रखनी चाहिए भारत में तीन से चार प्रतिशत लोग ही हवाई यात्राएं करते हैं।
  • ऐसी नीतियों का प्रभाव भारत में प्रशासन और राजनीति पर बढ़ता चला गया है, जिनसे इस तबके की आमदनी और धन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है- और ऐसा आबादी के बाकी हिस्सों की कीमत पर हो रहा है। K आकार की अर्थव्यवस्था इसी कारण हमारी आज की हकीकत बन गई है।
  • इनके साथ एक निष्कर्ष यह भी है कि तीन दशक से चल रही नव-उदारवादी नीतियों के कारण धन का संकेंद्रण आबादी के एक बहुत सीमित वर्ग के हाथों में हुआ है, जबकि आम जन की मुश्किलें बढ़ती चली गई हैं। इस कारण समाज में गैर-बराबरी की खाई चौड़ी होती चली गई है।

इस रूप में उपरोक्त आंकड़े देश के विकास के चरित्र और उससे समाज की जड़ होती गई वर्गीय संरचना की कहानी हैं। ये आंकड़े उस भारत से हमारा परिचय कराते हैं, जिसमें जीते हुए भी अक्सर उसके वर्गीय रूप से अपरिचित बने रहते हैं। हम उन परिघटनाओं से अपरिचित बने रहते हैं, जो आम जन की कीमत पर आगे बढ़ी हैं।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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