मजदूरों की महायात्रा के अर्थ !

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माथे पर बोझ लिए, छोटे-छोटे बच्चों का हाथ थामे या शिशुओं को गोद में उठा कर लगातार भागी जा रही भीड़ ने सब कुछ उघाड़ कर रख दिया है। विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक मानी जाने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था के चेहरे का पाउडर धुल चुका है। चिलचिलाती धूप में, बिना खाये-पिए चलते जाने  की जिद कोई यूँ ही नहीं करता है ! बड़े-बड़े शहरों से भाग रहे इन लोगों के लिए गांव में कोई सुविधा इन्तजार नहीं कर रही है।  

मतलब साफ़ है कि जहाँ थे वहां अब और नहीं रह सकते थे। राशन, पानी, शेल्टर आदि की जो प्रचार नुमा ख़बरें टीवी चैनलों पर आ रही थीं, उसकी असलियत का पता चल गया है। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने पैदल चलने का फैसला किसी जुनून में आकर किया है। वे बस के अड्डों पर गए, रेलवे स्टेशनों पर जमा हुए, गुहार लगायी, विरोध जताया, गाली खायी, लाठियां खायी, सब कुछ किया और अंत में निकल पड़े अपनी मरती गृहस्थी को माथे पर उठाये। यह पलायन नहीं, विरोध है, नकार है।  

देश के अलग-अलग हिस्सों से पूरब- बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड-की ओर चल रही इस महायात्रा ने उस उपनिवेशवाद को सामने ला दिया है जो आज़ादी के इतने सालों में गहरी से गहरी होती जा रही है। ये इलाके अब मजदूर उगाने वाले खेत बन गए हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने भी उन्हें ले जाने वाली ट्रेन रद्द करके उनकी इस नियति की तसदीक कर दी है।   

बंधुआ मजदूरी के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इस बंधुआ मजदूरी के कई किस्से सामने आ रहे हैं, लेकिन खबरों की सूची में शामिल करने के लिए मीडिया तैयार नहीं है। फैक्टरियों में  लॉकडाउन खुलने के बाद से मजदूरों को रोके जाने की शिकायतें लगातार आ रही हैं। हमें इसे कोरोना काल की अफरातफरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। यह वर्षों के संघर्ष के बाद मिले कानूनी अधिकारों के नष्ट हो जाने के बाद के अत्याचारों की कहानियां हैं। इसे लोकतान्त्रिक और मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की घटना के रूप में लेना चाहिए। 

मजदूरों को वापस लाने की उत्तर प्रदेश सरकार की आधी-अधूरी पहल और बिहार सरकार के पूरे नकार के आर्थिक-राजनीतिक अर्थ को भी समझना चाहिए। आर्थिक दौड़ में बुरी तरह पिछड़ चुके इन राज्यों की हालत का अंदाजा तो उस समय हो जाता है जब गोरखपुर के अस्पतालों में ऑक्सीजन के अभाव में लगातार हो रही मौतों या मुज़फ़्फ़रपुर के अस्पतालों में दम तोड़ रहे बच्चों को वहां के मुख्यमंत्री खामोशी से देखते रहते हैं।  

अपनी असंवेदनशीलता को ढंकने के लिए एक अयोध्या में दीपोत्सव करते और दूसरा शराबंदी से लेकर दहेज़ का अभियान चलाते रहते हैं। वे वर्ल्ड बैंक या दूसरे कर्जों से बनी सड़कों और फ्लाईओवर को दिखा कर वोट मांग सकते हैं, अपने नागरिकों के लिए बाकी कुछ नहीं कर सकते हैं। इन सरकारों से क्या उम्मीद जो अपने लोगों को राज्य में कोई रोजगार देने पर विचार करने की स्थिति में भी नहीं हैं। लेकिन इन राज्यों के श्रम और मेधा की लूट में केंद्र सरकार का कम हिस्सा नहीं है। वैश्वीकरण की विषमता भरी अर्थव्यवस्था को टिकाये रखने में वह भी पूरा हाथ बंटाती है। 

कई लोगों को लग सकता है कि ट्रेन के किराये पर उठा विवाद केंद्र सरकार के रेल विभाग की कोई चूक है या मजदूरों की समस्या की अनदेखी किये जाने का एक नमूना। इसका मतलब है कि वे रेलवे के डिब्बों से गरीब लोगों को धकियाये जाने के पिछले कई सालों से चल रहे अभियान से अनजान हैं। गतिशील किराये यानि टिकट खरीदने वालों की ज्यादा संख्या होने पर भाड़ा बढ़ा देने का नियम सिर्फ पैसे वालों को ट्रेन में बिठाने के लिए बना है। इस रेल विभाग से आप गरीबों को मुफ्त में ले जाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? वास्तव में, गरीबों को देने के लिए केंद्र सरकार के पास कुछ भी नहीं है, फूलों का गुलदस्ता या मीठे बोल भी नहीं। यह भी उसने दूसरे लोगों के लिए अलग कर रखा है।   

इस महायात्रा ने एक और बात सामने लायी है जो भविष्य में हमारी आस्था को मजबूत करती है। अनजान यात्रियों को जगह-जगह लोगों ने पानी पिलाया, खाना खिलाया और सुस्ताने के लिए जगह दी।  इंसानियत की इस छाँव में ही आकार  लेगी कोरोना के बाद की नयी दुनिया! 

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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