शक्तिविहीन औए वंचित कर दिए गए कश्मीरियों के सामने प्रतिरोध के सिवा कोई रास्ता नहीं

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कश्मीर एक बहुत बड़ी भू-राजनीतिक अनिश्चितता का सामना कर रहा है। पिछले हफ़्ते भारत, जो उस क्षेत्र के दो-तिहाई हिस्से पर शासन करता है, ने एकतरफ़ा निर्णय लेकर ऐतिहासिक समझौतों को ध्वस्त कर दिया और क्षेत्र को दो टुकड़ों में बांट दिया। कश्मीरी स्तब्ध हैं, गुस्से में हैं। असल में, ज़्यादातर कश्मीरियों को अब तक यह जानने का मौका तक नहीं दिया गया कि उनके साथ क्या घटा है, क्योंकि पूरा क्षेत्र फिलहाल सैनिक घेराबंदी और सूचना-बंदी से घिरा हुआ है। भारतीय संसद द्वारा अनुच्छेद 370 बदलने और अनुच्छेद 35ए (दो ऐसे संवैधानिक प्रावधान जो कश्मीर और भारत के बीच की ऐतिहासिक व कानूनी कड़ी के रूप में थे) को रद्द किये 10 दिन से ज़्यादा गुज़र चुके हैं, अभी भी, कश्मीर के तक़रीबन 1 करोड़ लोग दुनिया से पूरी तरह कटे हुए हैं।

हिंदूवादी भाजपा सरकार की अगुआई में भारत द्वारा लिए गये इस कदम से दक्षिण एशिया वापस 1947 की उन दर्दनाक घटनाओं की ओर आ गया है, जब एक खूनी बंटवारे ने भारत और पाकिस्तान बनाया और कश्मीर को दोनों देशों के बीच विभाजित होने और उसके नाम पर लड़े जाने का दुर्भाग्य मिला।

कश्मीरी शायद तब जश्न मनाते अगर अनुच्छेद 370 को रद्द करना उस प्रक्रिया का हिस्सा होता, जिससे उनके वतन को आज़ादी मिलती। पर जो हुआ वह अलग है। कश्मीरी तो असल में भारत के इन कदमों को अपने अस्तित्व पर सीधा हमला मानेंगे और एक उपनिवेशी योजना की शुरुआत, जैसा कि कश्मीरियों को पहले से डर था। और यह डर बेबुनियाद नहीं है।

कश्मीर और भारत का विलय

1947 में जब अंग्रेज़ों ने उप-महाद्वीप छोड़ा तब उस समय की जम्मू-कश्मीर की रियासत आज़ाद हुई। यहां एक अलोकप्रिय हिंदू राजतंत्र बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी पर राज कर रहा था। जब उन्हें मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान और हिंदू-बहुल भारत में चुनना पड़ा, तो हिंदू राजा ने भारत को चुना, अपनी प्रजा की मर्ज़ी जाने बिना। इसके बावजूद, कश्मीर का भारत में विलय सिर्फ रक्षा, विदेशी मामलों और संचार तक सीमित था। जल्द ही, भारत और पाकिस्तान में कश्मीर को लेकर जंग शुरू हो गयी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने युद्ध-विराम करवाया और जम्मू-कश्मीर में स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए जनमत-संग्रह करवाये जाने की दरकार की। तब भी और अब भी, ज़्यादातर कश्मीरी आज़ाद रहना पसंद करते रहे।

पर भारतीय नेताओं से यह आश्वासन लेने के बाद कि कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर स्वायत्तता मिलेगी और भारत इस राज्य की जनसांख्यकीय ख़ासियत को बरकरार रखेगा, कश्मीर के राजनेताओं के एक छोटे तबके ने हिंदू राजा के निर्णय का समर्थन किया। अनुच्छेद 370 कश्मीर की स्वायत्तता को प्रतिष्ठापित करता था, जिससे राज्य को अपना अलग संविधान, झंडा, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रखने का अधिकार था। कश्मीर की चुनी हुई विधानसभा की मर्ज़ी के बिना भारतीय क़ानून कश्मीर में लागू नहीं हो सकते थे। अनुच्छेद 35ए से यह वादा सुनिश्चित हुआ था कि भारतीय लोग वहां पर स्थायी रूप से बसर नहीं कर सकते।

इन अनुच्छेदों में संशोधन करने का एक ही तरीका है-अगर तरीके का पालन हुआ होता- जब जम्मू-कश्मीर विधानसभा इसे पूर्ण बहुमत से पारित करती। पर यह भी नहीं हुआ। राज्य की विधानसभा को पिछले नवंबर में मनमाने ढंग से भंग कर दिया गया था, जिसके बाद से एक भारतीय राज्यपाल पूरे प्रशासन पर नियंत्रण रख रहा है।

कश्मीर की स्वायत्तता

पिछले 70 सालों में, भारत की राज्य-सत्ता ने कश्मीर की स्वायत्तता को खोखला करने के लिए कई कदम उठाये। कश्मीर को असल में भारतीय राज्य-सत्ता के विध्वंस से कभी सुरक्षा मिली ही नहीं थी। अन्य राज्यों की तुलना में, कश्मीर में सबसे ज़्यादा सीधी दखलंदाज़ी की गयी। यहां के चुनावों में अक्सर व्यवस्थित रूप से धांधली करवायी गयी और सरकारों को मनमाने ढंग से हटाया गया। इसी राज्य को सबसे लंबे समय तक नई दिल्ली के सीधे प्रशासन के तले रखा गया।

इस राज्य में मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए मुकदमे और सज़ा होने से भारतीय सेना को पूरा बचाव मिला हुआ है। इस विशेषाधिकार का फायदा भारतीय सेना-बल ने पूरी तरह उठाया है। इसके बावजूद, अनुच्छेद 370 कश्मीरियों के लिए उनकी ख़ास पहचान का प्रतीक बन चुका था, एक समुदाय के रूप में उनके लंबे व निरंतर इतिहास की पहचान था और भविष्य में आज़ादी तथा स्वायत्त शासन की उम्मीद भी।

अनुच्छेद 370 में एकतरफ़ा तरीके से लाये गये बदलावों ने कश्मीर के भारत से विलय के सभी कानूनी आधार ख़त्म कर दिये हैं। यह स्थिति अब कश्मीर को उसकी आबादी की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जबरन कब्ज़ा कर ली गयी ज़मीन बना देती है।

अनुच्छेद 35ए को भंग किया जाना और भी बड़ा ख़तरा खड़ा करता है। यह अनुच्छेद तो 1947 के पहले कश्मीर के राज्य क़ानून को जारी रखने के लिए लागू किया गया था, जिसके तहत कश्मीर के स्थायी निवासियों को नागरिक अधिकार दिये गये थे, जिनमें ज़मीनें खरीदने व सरकारी नौकरियों में शामिल होने सहित तमाम प्रावधान थे। 1947 के बाद, सिर्फ राज्य की विधानसभा ही यह तय कर सकती थी कि कश्मीर के स्थायी निवासी कौन हैं।

जनसांख्यकीय समाधान

पर भारत के हिंदू राष्ट्रवादियों ने कई सालों से इस क़ानून को हटवाने के लिए अभियान चलाया है, ताकि भारतीय लोगों को कश्मीर में स्थायी रूप से बसाने के रास्ते खुल जायें। भारत में हिंदू दक्षिणपंथियों ने, जिसमें भाजपा और उसकी जनक अर्धसैनिक संगठन आरएसएस शामिल है, ने खुले तौर पर कहा है कि कश्मीर की मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी एक ‘समस्या’ है और कश्मीर में भारत के हिंदुओं को बसाने के रास्ते खोलने से कश्मीर की आज़ादी की मांगों को ख़त्म किया जा सकता है।

हिंदू दक्षिणपंथियों का यह उग्र जनसांख्यिकीय ‘समाधान’ उनकी दो प्रेरणाओं से निकला है- जर्मनी नाज़ियों और फिलिस्तीन में इज़राइली नीतियों से। इन दोनों प्रेरणाओं ने भारत में 1990 के दशक में लोकप्रियता हासिल करनी शुरू की, जब भारत सरकार ने कश्मीर में सैन्य दमन बढ़ाया और कश्मीरी भारत से आज़ादी की मांग के लिए उठ खड़े हुए।

1990 से लेकर अब तक, कश्मीरी निरंतर सैन्य कब्ज़े के तले जी रहे हैं। तबसे लेकर अब तक 80,000 से ज़्यादा कश्मीरियों को मारा जा चुका है, जबकि हज़ारों कैद में हैं। आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा घायल व आहत है या फिर मानसिक तक़लीफ़ों को झेल रहा है, जो सीधे तौर पर सैन्य दमन के कारण हुआ है।

कश्मीर की मुस्लिम-बहुल आबादी

आजीवन आरएसएस के सदस्य रहे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब साल 2014 में सत्ता में आये, तब हिंदू दक्षिणपंथियों ने इसको कश्मीर के लिए अपनी योजनाओं को अमल में लाने के मौके के रूप में देखा। प्राइम टाइम के टीवी न्यूज़ कार्यक्रमों में उग्र राष्ट्रवादी लोग अनुच्छेद 370 और 35ए के बारे में उन्माद भड़काते रहे। इनका दावा था कि ये प्रावधान कश्मीर को अनुचित रूप से विशेष दर्जा दे रहे थे। जबकि भारत के संविधान के तहत और भी कई क्षेत्र हैं, जहां इस तरह की विशेष सुरक्षा मिली हुई है पर उनको छुआ नहीं जा रहा है। यह साफ़ था कि कश्मीर की मुस्लिम-बहुल आबादी की वजह से ही उसे निशाना बनाया जा रहा है। भाजपा ने हमेशा की तरह विपक्षी दलों पर इल्ज़ाम लगाया कि वह कश्मीर की स्वायत्तता को भंग करने से मोदी को रोक रहे थे। कश्मीर को अन्य राज्यों की तरह ही होना चाहिए, हिंदू दक्षिणपंथियों ने मांग की।

पर, अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करने के निर्णय के साथ एक अतिरिक्त कदम भी उठाया गया, जिसके तहत राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया गया और इसे पदावनत कर राज्य से ‘केंद्र-शासित प्रदेश’ बना दिया गया, जो कि अन्य भारतीय राज्यों से निचले स्तर का दर्जा है। केंद्र-शासित प्रदेश पर सीधा दिल्ली से नियंत्रण होता है, जिससे कश्मीर में शासन व भूमि-उपयोग पर भारत को निर्णायक शक्तियां मिल जायेंगी।

कोई और रास्ता नहीं

क़रीब दो सदियों से, इस राज्य में तीन मुख्य क्षेत्र रहे हैं – कश्मीर, जम्मू व लद्दाख। इस व्यवस्था में आंतरिक टकराव रहे हैं, पर इस से उस राज्य में एक तरीके की सामुदायिक-धार्मिक विविधता बनी हुई थी। पर इस दोतरफ़ा बंटवारे से यह नाज़ुक संतुलन ज़बरदस्त तरीके से आहत हो गया है। कम आबादी वाला लद्दाख, जहां बौद्ध आबादी मुसलमान आबादी से थोड़ी ही ज़्यादा बहुमत में है, एक केंद्र-शासित प्रदेश होगा। जम्मू और कश्मीर अलग केंद्र-शासित प्रदेश होगा। अपने राज्य के प्रशासन पर इन क्षेत्रों के लोगों का न के बराबर मत होगा।

कश्मीर के राजनैतिक इतिहास और समाज पर मेरे एक दशक के शोध के दौरान, मैं इस पूरे क्षेत्र में एक भी ऐसी आवाज़ से रूबरू नहीं हुआ जो इन प्रावधानों को हटाने के पक्ष में थी। उनमें भी नहीं जो भारतीय राज्य का हिस्सा होना पसंद करते रहे हैं। कश्मीर की अधिकांश आबादी तो यह मानती है कि भारतीय शासन में रहने का मतलब हमेशा ही नस्लीय-संहार के खतरे में रहना है. इसलिए ज़्यादातर आज़ाद होना ही पसंद करेंगे।

भारत के अधीन कश्मीर के 70 साल राजनैतिक रूप से कमज़ोर किये जाने, लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित किये जाने और बर्बरता की कहानी कहते हैं। अब कश्मीरियों के सामने कब्ज़े और बेदखली की स्पष्ट व भयंकर आशंका खड़ी है। जैसे-जैसे कश्मीरियों को समझ में आने लगा है कि क्या घटित हुआ है, वैसे-वैसे उनका गुस्सा बढ़ रहा है। भारत ने उन्हें अनंत प्रतिरोध के भंवर में धकेल दिया है।

(मोहम्मद जुनैद मैसाचुसेट्स कॉलेज ऑफ़ लिबरल आर्ट्स में एंथ्रोपोलॉजी के सहायक प्राध्यापक हैं।यह लेख ‘ग्लोब पोस्ट’ से साभार लिया गया है।)

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