आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा डिक्टेटरशिप

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अगर आप आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से चिंतित नहीं हैं तो आपको चिंतित होना चाहिए। इन दिनों डेटा डिक्टेटरशिप को लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बराबर चर्चा में है। जब किसी तकनीकी पर सरकार और बड़े कॉरपोरेट एक साथ आ जाते हैं तब सामान्य जनता के हितों की अनदेखी के खतरे पैदा हो जाया करते हैं। पिछले दिनों भारत सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग और गूगल के बीच इस बात पर सहमति बनी है कि दोनों मिलकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर एक साथ काम करेंगे। इसके बाद से नीति आयोग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से सम्बंधित कार्यक्रम विकसित करने और अनुसंधान के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम तैयार करने में जुट गया है। नीति आयोग राष्ट्रीय डेटा और एनालिटिक्स पोर्टल के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर राष्ट्रीय कार्य नीति विकसित कर रहा है, ताकि सरकार व्यापक रूप से इसका उपयोग कर सके।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस खतरनाक क्यों और कैसे है? डेटा पॉवर से लैस सरकार और कॉर्पोरेट का गठजोड़ कैसे शक्तिशाली और जनसामान्य के लिए खतरनाक बन जाता है, इसे समझना बहुत जरूरी है।

आपको याद होगा एनआरसी और सीएए के विरोध में जब देश भर में सरकार विरोधी आंदोलन चल रहे थे तब भारत के गृह मंत्री ने संसद में एक बात कही थी और वह बात थी फेस रिकॉग्नीशन टेक्नोलॉजी की। फेस रिकॉग्नीशन टेक्नोलॉजी है क्या और यह कैसे काम करती है यह जानना बहुत जरूरी है। होता यह है कि जब किसी भीड़ में उपस्थित लोगों के चेहरे कैमरे में कैद हो जाते हैं और उन्हें पहले से तैयार उस डेटाबेस में एनालाइज किया जाता है जो सरकार के पास पहले से ही मौजूद है और जिसमें आपका चेहरा, आपका नाम, पता, जन्मतिथि वगैरह सब कुछ शामिल है, तब आपकी पहचान करना बेहद आसान हो जाता है।

किसी भीड़ में मौजूद आपके चेहरे को सरकार के पास मौजूद डेटाबेस में एकत्रित आपके चेहरे से मिलाया जाता है और फिर आपकी पहचान आसानी से कर ली जाती है। हो सकता है कि आप सोच रहे हों कि आप के आधार कार्ड पर जो फोटो छपा है या वोटर कार्ड पर जो फोटो छपा है वह तो बहुत साफ नहीं है, फिर सरकार कैसे आपकी सटीक पहचान कर सकती है? सही बात है कि आपके पास जो आधार कार्ड है या वोटर कार्ड है उसमें छपी फ़ोटो बहुत साफ और स्पष्ट नहीं है। दरअसल यह पूर्ण सत्य नहीं है। यहां मामला प्रिंटिंग का भी है। सरकार के डेटाबेस में मौजूद आपकी फ़ोटो काफी साफ और स्पष्ट है, बस उसकी छपाई सही से नहीं हुई है। कभी आपने आधार कार्ड डाउनलोड किया होगा तो आपको पता होगा कि आधार कार्ड में छपी हुई आपकी फोटो की क्वालिटी आपके प्रिंटर पर भी निर्भर करती है। कई बार अलग अलग समय पर डाउनलोड किए गए आधार कार्ड में आई आपकी फ़ोटो में भी अंतर महसूस हुआ होगा।

अब मान लीजिए कि आप कोई गैर राजनीतिक मीटिंग कर रहे हैं या कोई गैर राजनीतिक धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। सरकार को यह कैसे पता चलेगा कि इस धरने या प्रदर्शन में शामिल लोग सरकार विरोधी हैं या सरकार के पक्ष में हैं? तो होगा यूं कि सरकार उस मीटिंग में उपस्थित या उस धरने प्रदर्शन में उपस्थित सभी लोगों के स्मार्टफोन से भेजे जाने वाले डेटा को एनालिसिस करके यह पता लगा लेगी कि आप सरकार विरोधी खेमे के हैं या सरकार के समर्थक खेमे से।

बात को थोड़ा और स्पष्ट करते हैं। गूगल ट्रैफिक आपको कैसे बताता है कि कहीं पर भारी ट्रैफिक है और आपको रास्ता बदल लेना चाहिए? गूगल ने कहीं पर कैमरे थोड़ी न लगा रखे हैं? ये तो आपकी पॉकेट में मौजूद स्मार्टफोन पर आधारित महज़ एक टेक्नोलॉजी है जो स्मार्टफोन के लोकेशन के डेटा का एनालिसिस करके ऐसा कमाल करती है। 

टेक्नोलॉजी हमेशा फूलप्रूफ नहीं होती है। पिछले दिनों जर्मनी के साइमन वेकर्ट ने यूट्यूब पर एक वीडियो पोस्ट किया था जिसमें दिखाया गया है कि कैसे वे बर्लिन की सड़कों पर वर्चुअल ट्रैफिक जाम दिखाने के लिए गूगल मैप्स को ‘हैक’ करने में कामयाब रहे।

अपने प्रयोग के लिए वेकर्ट ने गूगल मैप चलाने वाले 99 स्मार्टफ़ोन को एक कार्ट में लोड किया और बर्लिन की सड़कों पर पैदल ही घुमाया। इन स्मार्टफोन्स का डेटा एनालिसिस करके गूगल ने नेविगेशन ऐप में ट्रैफिक जाम दिखाना शुरू कर दिया, जो वास्तव में था ही नहीं।

गूगल मैप्स यूज़र्स के स्मार्टफोन के डेटा का उपयोग ट्रैफ़िक जाम की पहचान करने के लिए करता है। गति, स्थान और अन्य भीड़ वाले डेटा का एनालिसिस करके गूगल किसी क्षेत्र या सड़क का लाइव ट्रैफ़िक मैप एल्गोरिथ्म के माध्यम से बनाता है। वेकर्ट ने चूंकि 99 स्मार्टफोन्स को एक साथ धीमी गति से चलाया इसलिए गूगल ने यह एनालिसिस किया कि वहां पर लोग काफी धीमी गति से चल रहे हैं और भारी ट्रैफिक जाम है।

आने वाले दिनों में सरकार भी कुछ ऐसा ही करेगी। आपके स्मार्टफोन की वजह से सरकार को पहले से पता है कि आपकी पसंद क्या है, आप किस तरह की खबरें पढ़ते हैं, आपके मित्र किस तरह के हैं, आपके विचार क्या हैं, आपकी जरूरतें क्या हैं। चूंकि आपने अपने स्मार्टफोन पर अपनी जरूरत की चीजें खोजी हैं, अपने पसंद की खबरें पढ़ी हैं, अपने पसंद के लोगों के साथ फेसबुक पर दोस्ती की है और आपने कुछ खास तरह के पोस्ट को लाइक किया है, जिससे आपके विचारों का पता चलता है।

अब सरकार करेगी क्या कि किसी भीड़ में मौजूद स्मार्टफोन से मिलने वाले डेटा को एनालिसिस करके यह पता लगा लेगी कि उस भीड़ में मौजूद लोगों की विचारधारा क्या है, उस भीड़ में मौजूद लोगों की आवश्यकता क्या है, उस भीड़ में मौजूद लोग किस हैसियत के हैं? क्या कहा आपने? हैसियत कैसे पता करेगी? भाई आप जो स्मार्टफोन रखते हैं वह कितना कीमती है, आप ऐमज़ॉन पर क्या आर्डर करते हैं, आप किस तरह के बिलों का कितना भुगतान करते हैं, इन सब से पता चल जाता है कि आप की हैसियत क्या है? आने वाले दिनों में कोई खास एप डाउनलोड करना अनिवार्य करके सरकार आप पर बराबर नजर रख सकती है और इस तरह किसी भी होने वाले धरने प्रदर्शन के खिलाफ सरकार को कैसा एक्शन लेना है, यह तय करने में उसे एक मिनट भी नहीं लगेगा।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को मानवता की बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन इंसान को इस पर क़ाबू करने का कोई न कोई रास्ता भी तलाशना पड़ेगा। अगर हम इसके ख़तरों के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाए तो इस कारण मानव सभ्यता को सबसे बड़ा नुक़सान पहुंच सकता है। अगर लोगों को इसके ख़तरों के बारे में नहीं पता या उसकी समझ नहीं तो इसका फायदा कॉरपोरेट और सरकारें उठा सकती हैं।

आज जबकि विश्वभर में हवाई जहाज़ों की आवाजाही पूर्णतः आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर निर्भर है। कौन-सा हवाई जहाज़ कब, किस रास्ते से गुज़रेगा, कहां सामान पहुंचाएगा, यह सब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके तय किया जा रहा है तब जरूरी हो जाता है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ख़तरों और इसके नियमन के बारे में गंभीरता से विचार किया जाय।

तमाम लाभों के बावजूद आर्टिफिशियल इंजेलिजेंस के अपने खतरे हैं। हमने आग और बिजली का इस्तेमाल तो करना सीख लिया, पर इसके बुरे पहलुओं को आज तक झेलते हैं जबकि ये प्राकृतिक हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कैंसर जैसे रोगों के निदान या क्लाइमेट चेंज से जुड़ी समस्याओं को दूर करने में तो किया ही जा सकता है लेकिन यदि इसमें अंतर्निहित जोखिम से बचने का तरीका नहीं खोजा गया तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

(प्रखर चिंतक और लेखक मनोज अभिज्ञान साइबर और कॉरपोरेट मामलों में एक्सपर्ट एडवोकेट हैं।)

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