अमर देसवा: व्यवस्था के तिलिस्म में नागरिकता का आख्यान

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आधुनिक समय में मानव सभ्यता के समक्ष कोविड-19 के ऐतिहासिक महासंकट ने पूरे विश्व के सामने जो चुनौती पेश की, उस पर अभी तक साहित्य में बहुत ज़्यादा रचनायें देखने को नहीं मिलीं। हालांकि, कथा साहित्य में हमारे समय के बड़े कथाकार उदयप्रकाश की महत्वपूर्ण कहानी `अंतिम नींबू` उल्लेखनीय है किन्तु औपन्यासिक कृतियां विशेषकर हिंदी में तो देखने में नहीं आई हैं। ऐसे में प्रवीण कुमार द्वारा रचित कृति `अमर देसवा `(व्यवस्था के तिलिस्म में नागरिकता का आख्यान) एक प्रशंसनीय कदम है। जाने-माने साहित्यकार संजीव कुमार की सटीक टिप्पणी जो किताब के बैक कवर पर छपी है, में सही ही कहा गया है कि`…….कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बीतते न बीतते उस पर केंद्रित एक संवेदनशील, संयत और सार्थक औपन्यासिक कृति का रचा जाना एक आश्चर्य ही कहा जायेगा।`

हम नहीं भूल सकते कि विश्व गुरु होने का दावा करने वाले देश में महामारी के दौर में फंसी मानव जाति की दुर्दशा पर गुजराती कवि पारुल खक्कर की एक छोटी सी कविता`…..साहेब तुम्हारे रामराज में शव वाहिनी गंगा` ने किस तरह मौत के तांडव में भी आपदा में अवसर तलाशने वाली सरकार और ऑक्सीजन, हस्पताल व इलाज मुहैया करवाने में असफल तंत्र और चारों तरफ फैले मौत के सन्नाटे में पूरे देश से ताली-थाली बजवाने वाली व्यवस्था के कपट को सरे बाज़ार नंगा कर दिया था। सामाजिक-राजनीतिक संकटों पर साहित्यिक रचनाओं के महत्त्व और प्रासंगिकता विशेषतः महामारी के संदर्भ में छीजते मानवीय मूल्यों के परिदृश्य में और उससे भी ज़्यादा मानवता को बचाए रखने के लिए ऐसी रचनाओं की आत्यंतिक ज़रुरत संदेह से परे है।

बिहार में जन्मे और दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा पाकर इसी विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत कथाकार प्रवीण कुमार का यह पहला उपन्यास है। इससे पहले उनके दो कहानी संग्रह `छबीला रंगबाज़ का शहर ` और `वास्को डी गमा की सायकिल` आ चुके हैं जिनके लिए उन्हें क्रमशः `डॉ. विजयमोहन सिंह स्मृति युवा कथा पुरस्कार` एवं अमर उजाला समूह के प्रथम `शब्द सम्मान:थाप` सम्मान से नवाज़ा जा चुका है।

कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि पर इतने कम समय में इस उपन्यास का लिखा जाना साहित्य में उनकी लम्बी छलांग और भविष्य में उनकी कलम से साहित्य की पिच पर उनकी उज्जवल संभावनाओं की ओर सशक्त इशारा करता है। 

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी जिसके चलते पूरी दुनिया में आधिकारिक रूप से लगभग 68,66,733 मौतें हुई और देश में यह आंकड़ा सरकारी तौर पर 5,31,547 मौतों का बताया जाता है जबकि विशेषज्ञों और पर्यवेक्षकों का मानना है कि भारत में  मौतों का यह आंकड़ा 25 लाख से 45 लाख तक हो सकता है। इसलिए उपन्यासकार ने अपनी कृति को कोरोना के दौरान युद्ध स्तर पर काम करते-करते `शहीद` हो जाने वाले अग्रणी रक्षादलों के सदस्यों, सफाईकर्मियों और मसान-कब्रिस्तान में खटने वाले उन लोगों को जिनकी सुध किसी को नहीं थी और उन सभी के साथ-साथ `महामारी में मारे गए पर आंकड़ों में बेदर्ज उन बेबस नागरिकों,गंगा में तैरती हुई गुमनाम लाशों को, जिनके पुरखों ने आज़ादी वाली रात तिरंगा हाथ में थामे कभी जश्न मनाया था` को समर्पित किया है।

समान रूप से रेखांकित किये जाने वाली अन्य महत्वपूर्ण  बात यह है कि उपन्यासकार ने किताब की शुरुआत में ही ठसक के साथ उद्घोषित किया है कि कथानक में वर्णित चाहे  व्यक्ति हों या परिस्थितियां उनकी कथा के चरित्र और घटनाएं काल्पनिक नहीं हैं, और इसे कतई संयोग न समझा जाये।

उत्तर भारत की गोबर पट्टी का एक लाक्षणिक, कुप्रबंध और भ्रष्टाचार से ग्रस्त `अघोरी बाजार` नामक एक छोटा सा गंधाता क़स्बा इस उपन्यास के कथानक के केंद्र में है जो गंगा के कछार के किनारे मठ और मसान से सटा हुआ है। `…… आसमान जितना धुलता जाता है, अघोरी बाजार उतना ही मैला होता जाता है`, ऐसा है यह अघोरी बाजार, तंत्र की तरह अव्यवस्थित। नक़्शे को दरकिनार कर जहां जेसीबी मशीन खोद दे वहीं नाला और जहां बुलडोज़र चल जाये वही. सड़क। ऐसे अघोरी बाजार का बाशिंदा है वकील शैलेन्द्र अमृत जो नागरिकता की चेतना से लबरेज़ जनाधिकारों का जुझारू पक्षधर है। अघोरी बाजार, वहां की मिट्टी, कछार, टीलों और कजरौटे जैसे बिछड़े हुए मित्र, इन सबसे उसके बचपन की यादें जुड़ी हैं। दिनों-दिन मरती हुई गंगा और मक्कार सत्ता प्रतिष्ठान के हाथों तेज़ी से नागरिकता खोकर प्रजा में तब्दील होते लोगों  से उसका अटूट लगाव ही वो ताक़त है जिसके भरोसे वह वकालत से अपना छोटा सा परिवार ही नहीं चलाता बल्कि सतत रूप से प्रशासन की काहिली के खिलाफ लड़ता रहता है। लब्बो-लुवाब यह है कि जीवटवाला यह वकील  एस. अमृत अपने आसपास कुछ भी ग़लत होते हुए नहीं देख सकता और इसीलिए वक़्त-बेवक़्त चाहे वो प्रशासन हो या फिर धंधेबाज़ी का अड्डा बना मठ या उसका मठाधीश महेन्द्रनाथ, सभी सत्ता-केंद्रों से उसकी भिड़ंत जारी रहती है।

इसी क़स्बे को नागरिकता की हैसियत के लिहाज़ से दो भागों में बांटने वाले संधिस्थल पर अपना क्लीनिक चलाने वाले,मनुष्यता को नागरिकता से वृहत्तर मानने एवं `डॉक्टर मरीज़ को बचाने का दवा कर सकता है, मनुष्यता को नहीं` तथा `नागरिकताएं सभ्यताओं का जाली चेहरा होती हैं`, ऐसा कहने  वाले  डॉक्टर मंडल और युवा वकील एस.अमृत में उम्र का फ़र्क़ होने के बावजूद दोनों की दोस्ती गहरी और दिलचस्प है। वकील की बौद्धिक खुराक डॉक्टर है और डॉक्टर की आत्मिक खुराक वकील।

डॉ. मंडल एक बेहद संतोषी और उदार मूल्यों के वाहक व्यक्ति हैं जिन्हें लालच छू भी नहीं गया है। अपनी पत्नी, शुभचिंतकों के अलावा अपने मौकापरस्त और हद दर्जे के लालची व स्वार्थी कम्पाउंडर रामायण के दबाव के बावजूद वे अपने क्लीनिक की फीस नहीं बढ़ाना चाहते हैं। वे अपने संघर्ष के दिनों को भूले नहीं हैं और इसीलिए मनुष्य और मानवीय मूल्य उन्हें सबसे प्रिय हैं। उदात्त इतने हैं कि न चाहते हुए भी अपने डॉक्टर बेटे को बनारस में क्लीनिक खोलने में मदद ही नहीं करते बल्कि बनारस में अपना क्लीनिक चलाते हुए जब डॉक्टर बेटा अपनी धोबिन मरीज़ चंदा को दिल दे बैठता है तो उसे खुले मन से स्वीकार करने में उन्हें गुरेज़ नहीं होता।

यह कोरोना काल की पहली और दूसरी लहर के बीच और उसके बाद बढ़े संकट का दौर है जब कुविचारित लॉकडाउन के चलते नागरिकता स्थगित चल रही है, लचर सरकारी स्वास्थ्य सेवांए चरमरा रही हैं, ऑक्सीजन की मांग पांच हज़ार गुणा बढ़ गई है, नागरिक कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं, सत्ताधीशों की तर्ज़ पर डॉ. मंडल के क्लीनिक की कम्पौंडरी छोड़ रामायण ने मठाधीश महेन्द्रनाथ के साथ मिलकर आपदा में अवसर के सूत्र पर अमल कर रातों-रात अवैध ज़मीन पर जुगाड़ से हस्पताल खड़ा कर लिया है। इस नये हस्पताल में बेड, ऑक्सीजन और इलाज की क़ीमत लाखों में है जिसके विज्ञापन में प्रामणिक इलाज के साथ `दिव्य प्रसाद` के वितरण का फोटो धर्म और बाजार के नापाक गठजोड़ की ओर इशारा कर रहा है।

`…धीरे धीरे हर वह चीज़ अनुपस्थित हो रही थी जिनकी उपस्थिति से एक देश बनता है। नागरिकता को परिभाषित करने वाली हर शक्ति अपनी धुरी से हटी जा रही है। संस्थाओं ने ऐसा भरोसा तोड़ा कि उनसे पैदा होने वाले विश्वास को फिर से जमने में कई दशक लग जाएं। टीवी पर किसी मंदिर निर्माण के नक्शे पर बहस चल रही थी…।`

टीवी पर मरते हुए इंसान नहीं मंदिर का नक्शा दिखाया जा रहा था। देशभर में लाखों लोग शहरों से अपने गांव-घरों की ओर पाँव में छाले लिए अपने परिवार के साथ देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कई-कई सौ किलोमीटर पैदल चल रहे हैं। जिस तरह ऑनलाइन तकनीक के सहारे न्यायव्यवस्था घिसटती चल रही है उसी तरह घरों में क़ैद बच्चों की पढाई या तो लैपटॉप और एंड्राइड मोबाइल के अभाव में बंद पड़ी है या आंशिक रूप से ही लंगड़ा कर चल रही है।

वकील एस.अमृत ने लव ज़िहाद के नाम पर धार्मिक उन्माद के दौर में अंतर्धार्मिक विवाह करने के बाद अपने रक्तपिपासु रिश्तेदारों से दूर नाम बदल कर डरे सहमे हुए रज़्ज़ाक़ से रजत किशोर बने युवा और गोद में छोटी सी बिटिया लिए उसकी पत्नी ईशा को अपना किरायेदार रख लिया है। रज़्ज़ाक़ उर्फ़ रजत किशोर, महेन्द्रनाथ के मठ के हस्पताल को दवाइयां सप्लाई करने के काम में मुब्तिला है लेकिन पकड़े गए तो मार दिए गए` का भय बराबर बना हुआ है जो इस जोड़े को चैन से जीने नहीं दे रहा है क्योंकि हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही उन्हें तलाश रहे हैं। वकील एस.अमृत और उनके मित्र जिनमे डॉक्टर, पत्रकार और अन्य स्वयंसेवी व्यक्ति शामिल हैं, का एक छोटा सा दल `सांस टीम` के नाम से पीड़ितों को सहायता करने के क्रम में खुद हांफ रहा है जबकि मौतें रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। स्टेट अनुपस्थित है। 

उपन्यास में सामानांतर चल रही चार-पांच कहानियों की इसी गहमागहमी में सत्य के संधान और `नक़ली` के बरक्स `असली` की तलाश में जापान से 2000 वर्षों पुराना ग्रंथ लेकर उसकी जड़ें खोजने भारत आये जापानी पात्र ताकीओ हाशिगावा के माध्यम से भौतिक परिस्थितिओं को मानव द्वारा स्वयं के एक बेहतर संस्करण बनने की प्यास को रूपकों के तौर पर सम्मिलित किया जाना प्रस्तुत कृति को एक साथ गहनता, व्यापकता और ऊंचाई देता चलता है। उधर महामारी ने एक उद्योग का रूप ले लिया था।

लेखक लोकतंत्र के आवरण के पीछे जल,जंगल, ज़मीन से नागरिकों की राजसत्ता और पूंजी के गठजोड़ के हाथों बढ़ती बेदखली के चलते एंथ्रोपोसीन की प्रक्रिया पर भी अप्रत्यक्ष किन्तु सशक्त टिपण्णी करते हुए दिखता है। आधुनिक समय के सभ्यतागत अंतर्विरोधों को रेखांकित करने में लेखक सफल होता है  जैसे कि एक ओर मानव का अंधा-धुंध उपभोगवाद सृष्टि के लिए संकट बन गया है, वहीं मानवतावाद के एक बड़े वृत्त के अंदर राष्ट्र-राज्य और राष्ट्र-राज्य के भीतर छीजती नागरिकता मनुष्य के मनुष्य बने रहने के दायरे को दिनों-दिन सिकोड़ रही है,उसे निहत्था और कमज़ोर बना रही है।

कथानक पर वापस आते हैं। कोरोनाग्रस्त अपने युवा डॉक्टर बेटे की आईसीयू में भर्ती की खबर पाकर डॉक्टर मंडल और वकील अमृत का कई सौ मील पुरानी गाड़ी चलाकर रास्ते में जगह जगह शवों को जलते देखना, मर चुके डॉक्टर बेटे की मृत्यु की खबर को हस्पताल प्रशासन द्वारा दबाये रखना और डॉ. मंडल से लाखों रुपये ऐंठना और वापसी में शव को कैरियर पर ढोकर ले जाने के जुर्म में पुलिस द्वारा उनसे रिश्वत लेना उस भयावह दौर को ताज़ा कर देता है। यहां डॉ. मंडल की टिप्पणी गौरतलब है- “अमृत,लोकतंत्र में एक `मास किलिंग` लगातार चलती रहती है।ऊपर से तुम्हारे जादुई घोड़े पर अब धर्मध्वजाधारी सवार हैं ।“ 

रज़्ज़ाक़ उर्फ़ रजतकिशोर की कोरोना संक्रमण से मौत के बाद रोती-बिलखती ईशा का रुदन“भैया! हम जान बचाकर भागे हुए लोग हैं“और  यह कि भैया इन्हें जलाना मत ये हिन्दू नहीं मुसलमान हैं, जैसे प्रसंग हिला कर रख देते हैं। कजरौटे का पत्नी को खोकर अपने किशोर बेटे-बेटी के साथ मीलों साइकल चलाकर लुटी-पिटी स्थिति में घर वापस लौटना लेकिन लालच के गर्त में डूबे रामायण द्वारा उसके किशोर बेटे से महंत के हस्पताल में काम करवाना और इसी क्रम में उसकी मौत होना और विक्षिप्त कजरौटे द्वारा धीमे-धीमे गुनगुनाना  `जहंवा से आयो….अमर वह देसवा…चाँद न सूर न रैन दिवसवा ` बेहद मार्मिक प्रसंग हैं।

अमर देसवा

उपन्यास  

लेखक: प्रवीण कुमार

प्रकाशक : राधाकृष्ण पेपरबैक

मूल्य 250 रुपये 

उपन्यास का चरम बिंदु तब सामने आता है जब क़्वारेन्टाइन में क़ैद केंद्रीय पात्र एस. अमृत की की गंध और स्वाद ग्रंथियां छल करने लगती  हैं और उसकी सांस उखड़ने लगी है। कजरौटा और डॉ. मंडल उसे जिस हस्पताल में लिए जा रहे हैं, वहां होश में रहते हुए तो एस.अमृत कतई नहीं जाता।

मानकों के रोज़ गिरते जाने और स्थगित नागरिकता के समय में, करुणा रुपी अभेद्य लौह दुर्ग के टूटते ही इंसान के ख़त्म होने की ध्वनियों के बीच, इज़ी डेथ के दौर में जब धर्म आक्रामकता का पर्याय बना दिया गया है तब `लड़ना भी एक धर्म है’ का संदेश देते इस उपन्यास को पढ़ा जाना ज़रूरी है। और आख़िर में इसी किताब का यह वाक्य- `बहुजन हिताय का कोई राष्ट्र नहीं होता`।

(हेमंत सिंह सामाजिक कार्यकर्ता हैं और दलितों व अर्थव्यवस्था से जुड़े मसलों पर लिखते रहे हैं।)  

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