अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: नारी सशक्तिकरण: भ्रम और सत्य

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यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि क्रिया-प्रतिक्रिया को आधार बनाकर, नारी सशक्तिकरण की योजना बनाई जाये, तो वह कितनी सशक्त होगी? महिलाओं के साथ अत्याचार, असमानता और यौन हिंसा के कारण क्या सचमुच निरक्षता, दहेज और कानून की कमजोरी ही है? समाधान पाने के लिए प्रश्न कीजिए कि हम क्या करें? भारत में साक्षरों की संख्या बढ़ायें, दहेज के दानव का कद घटायें, अवसर बढ़ाने के लिए नारी आरक्षण बढ़ायें, विभेद और नारी हिंसा रोकने के लिए नये कानून बनायें, सजा बढ़ायें या कुछ और करें?

यदि इन कदमों से बेटा-बेटी अनुपात का संतुलन सध सके, बेटी हिंसा घट सके, हमारी बेटियां सशक्त हो सकें, तो हम निश्चित तौर पर ये करें। किंतु आंकङे कुछ और कह रहे हैं और हम कुछ और। आंकङे कह रहे हैं कि यह हमारे स्वप्न का मार्ग हो सकता है, किन्तु सत्य इससे भिन्न है।

सत्य क्या है?

सशक्तिकरण तो शिशु के गर्भ में आने के साथ ही शुरू हो जाने वाली प्रक्रिया है ना। बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था तो अलग- अलग चरण मात्र ही हैं ना।

श्वेत-श्याम दुई पाटन बीच

कथाकार उर्मिला शिरीष की एक कहानी है – ’जंगल की राजकुमारियां’। कहानी में नन्ही बुलबुल और दादी के बीच इन संवादों को जरा गौर से पढिये :

’’अच्छा दादी, बताओ, क्या मैं पुलिसवाली नहीं बन सकती ?’’

’’क्या करेगी पुलिसवाली बनकर ?’’

’’गुण्डों की पिटाई करुंगी। जो लोग लङकियों को परेशान करते हैं; उनके पर्स और चेन लूटते हैं, उनको पकङकर मारुंगी।’’

बुलबुल कल्पना मात्र से प्रफुल्लित हो उठी। उसका रोम-रोम रोमांचित हो रहा था। कहती है -’’पता है दादी, मम्मी मेरे लिए लङका देख रही है। पापा ने कहा कि बचपन में शादी की, तो पुलिस वाले पकङकर ले जायेंगे। दादी, मुझे तो पुलिस बनना है, पेंट-शर्ट पहनना है। कितनी स्मार्ट लगती है पुलिस वाली!’’

संवाद से स्पष्ट है कि नन्ही बुलबुल के मन में गुण्डों की हरकतों और बाल विवाह के गैर कानूनी कृत्य के खिलाफ प्रतिक्रिया का बीज जङ पकङ चुका है। यह प्रतिक्रिया ही पुलिसवाली बनने की उसकी ख्वाहिश का मूल आधार है। यदि इस क्रिया और प्रतिक्रिया को आधार बनाकर, बालिका सशक्तिकरण की योजना बनाई जाये, तो वह कितनी सशक्त होगी ? आइये, इसे समझने के लिए निम्नलिखित दो चित्रों को ध्यान से देखें:

भ्रूण हत्या

बेटे के सानिध्य, संपर्क और संबल से वंचित होते बूढे़ मां-बाप के अश्रुपूर्ण अनुभव और भारतीय आंकङे, मातृत्व और पितृत्व के लिए खुद में एक नई चुनौती बनकर उभर रहे हैं। सभी देख रहे हैं कि बेटियां दूर हों, तो भी मां-बाप के कष्ट की खबर मिलते ही दौङी चली आती हैं, बिना कोई नफे-नुकसान का गणित लगाये; बावजूद इसके भारत ही नहीं, दुनिया में बेटियां घट रही हैं। काली बनकर दुष्टों का संहार करने वाली, अब बेटी बनकर पिता के गुस्से का शिकार बन रही है। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद, वे कन्या भ्रूण हत्या पर आमादा हैं; नतीजे में दुनिया के नक्शे में बेटियों की संख्या का घटना शुरू हो गया है। दुनिया में 15 वर्ष उम्र तक के 102 बेटों पर 100 बेटियां हैं। कानून के बावजूद, भारत में भ्रूण हत्या का क्रूर कर्म ज्यादा तेजी पर है। यहां छह वर्ष की उम्र तक का लिंगानुपात, वर्ष 2001 में जहां 1000 बेटों पर 927 बेटियां था, वह वर्ष 2011 में घटकर 919 हो गया है। यह राज्य स्तर पर, हरियाणा में न्यनूतम है। लिंगानुपात में गिरावट का यह क्रम वर्ष 1961 से 2011 तक लगातार जारी है।

बाल विवाह

कभी मां-बाप वीर बेटी मेडलीन, जेन, लक्ष्मीबाई, पद्मा और विद्युल्लता की वीरता के किस्से सुनाकर बालिका सशक्तिकरण का संस्कार डालते थे। आज उन्ही मां-बाप द्वारा बेटियां इस कदर बोझ मान ली गई हैं कि विश्व स्तर पर प्रत्येक तीन सेेकेण्ड में एक बालिका का उसकी सहमति के बगैर विवाह किया जा रहा है। ’प्लान यूके’ नामक संगठन के मुताबिक, भारत में प्रत्येक वर्ष में करीब एक करोङ और प्रत्येक दिन में 27,397 कम उम्र लङकियों की बिना सहमति शादी कराने का औसत है। यूनीसेफ की रिपोर्ट (स्टेटस ऑफ वर्ल्ड चिल्ड्रन रिपोर्ट-2012) का दावा है कि बाल विवाह के वैश्विक आंकङे में 40 फीसदी हिस्सेदारी भारत की है। प्रत्येक सौ में से सात कन्याओं की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हो रही है। वर्ष 2005-06 में किए गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक, कुल उत्तरदाता महिलाओं में से 22 फीसदी महिलाओं ने अपना पहली संतान को 18 से कम वर्ष की उम्र में जन्म दे दिया था। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की परिवार कल्याण सांख्यिकी रिपोर्ट-2011 से स्पष्ट है कि शहर व गांव के बीच कम उम्र कन्या विवाह अनुपात 1ः3 है। कानून के बावजूद, कई समुदायों में आज भी बाल विवाह को मंजूरी है।

कम उम्र में बिटिया की शादी के जुल्म से हम चिंतित हों कि दुनिया भर में 15 से 19 उम्र में हुई कन्या मृत्यु में ज्यादातर मामले गर्भावस्था संबंधी जटिलता के पाये गये हैं। शादी होते ही पढ़ाई छोङने की मज़बूरी के आंकङे, कम उम्र में विवाह के दुष्प्रभाव की तरह हमारे सामने हैं ही।

लिंगभेद

लिंगभेद की मानसिकता यह है कि 14 वर्षीय मलाला युसुफजई को महज् इसलिए गोली मार दी गई, क्योंकि वह स्कूल जा रही थी और दूसरी लङकियों को भी स्कूल जाने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रही थी। दुनिया के कई देशों में ड्राइविंग लाइसेंस देने जैसे साधारण क्षमता कार्यों के मामले में भी लिंगभेद है। लिंगभेद का एक उदाहरण, पोषण संबंधी एक सर्वेक्षण का निष्कर्ष भी है; तद्नुसार, भारत में बालकों की तुलना में, बालिकाओं को भोजन में दूध-फल जैसी पौष्टिक खाद्य सामग्री कम दी जाती है। औसत परिवारों की आदत यह है कि बेटों की जरूरत की पूर्ति के बाद ही बेटियों का नंबर माना जाता है।

यौन हिंसा

किसी के भाई, पिता, पुत्र, पति, रिश्तेदार व मित्र की भूमिका निभाने वाले पुरुषों की यौन पिपासा का विकृत चित्र यह है कि अमेरिका में 12 से 16 वर्षीय लङकियों में करीब 83 प्रतिशत यौन शोषण का शिकार पाई गईं हैं। भारत में भी यौन शोषण के आंकङे बढ़ रहे हैं। दिल्ली में गत् तीन वर्षों के दौरान हुए कुल बलात्कार में 46 प्रतिशत पीङिता, अव्यस्क थीं। एक सर्वेक्षण में दिल्ली में मात्र 16 प्रतिशत, मुंबई में 34 प्रतिशत, तो गुजरात में 88 प्रतिशत ने माना कि लङकियां घर से बाहर भी सुरक्षित हैं। एनसीआरबी रिपोर्ट के मुताबिक, बलात्कार, छेङखानी और जलाने के सबसे ज्यादा मामले, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में सामने आये हैं।

शिक्षा

उक्त चित्र सोचनीय न होता, तो हमें आज बालिका सशक्तिकरण पर चिंतन की आवश्यकता न होती। इस चिंता और चिंतन को सामने रखकर ही कभी भारतीय संविधान की धारा 14, 15, 15(3), 16 और 21(ए) विशेष रूप से शैक्षिक अधिकार में समानता सुनिश्चित करने हेतु बनाई गई थी। धारा 15 धर्म, वर्ण, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करती है। इस बाबत् बढ़ी जागृति, शिक्षा का अधिकार कानून और अन्य प्रोत्साहन कारणों से शहर और गांव…. दोनो जगह बालक-बालिका साक्षरता प्रतिशत के बीच का अंतर घटा है। वर्ष 2011 में यह 16.68 प्रतिशत था। खुशी की बात यह है कि 2001 की तुलना में 2011 में शहरी स्त्री साक्षरता वद्धि दर भले ही नौ रही हो, ग्रामीण क्षेत्र में यह वृद्धि 26 फीसदी दर्ज की गई; जबकि गांवों और शहरों में बालक साक्षरता वृद्धि दर क्रमशः पांच और 10 प्रतिशत पर अटक कर रह गई। इस चित्र के आगे बढ़ते हुए आप इस परिदृश्य पर भी खुश हो सकते हैं कि बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल आने की दौङ में लङकियां, लङकों को पछाङ रही हैं। खुशी की बात है कि गांव की बेटियां भी अब गांव से दूर पढ़ने जाने में नहीं झिझकती। मध्य प्रदेश की बोर्ड परीक्षा में 500 में से 481 अंक पाकर नेत्रहीन सृष्टि ने सभी को चौंका दिया, तो नेत्रहीन सुनंदा ने नागदा में अव्वल आकर; सम्मान में उसे एक दिन के लिए नगरपालिकाध्यक्ष की कुर्सी सौंपी गई।

बागडोर

आप कह सकते हैं बेटियों के लिए नामुमकिन माने जाने वाले लगभग हर क्षेत्र में बेटियों ने प्रवेश किया है। नौकरी के मामले में लङकियां, अपराजिता बनकर लङकों को चुनौती दे रही हैं। भारत की सार्वजनिक और बहुराष्ट्रीय क्षेत्र की 11 प्रतिशत कंपनियों की मुख्य कार्यकारी पद पर आसीन शख्सियतें, लङकियां ही हैं। नर्सिंग में बेटियों का लगभग एकाधिकार है। अमेरिका में तो एक पुरुष नर्स पर 9.5 महिला नर्स का अनुपात है। ’थिंकटैंक सेंटर टैलेंट इनोवेशन’ के सर्वेक्षण का यह निष्कर्ष भी खुश करने वाला है कि भारतीय लङकियां अपनी पेशेवर आकांक्षाओं को पूरा करने के मामले में अमेरिका, जर्मनी और जापान में अपनी समकक्ष लङकियों से आगे हैं। मैरी काॅम, किरन बेदी, संतोष यादव, महज् 19 साल की उम्र में बालाजी टेलीफिल्मस को ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाली एकता कपूर से लेकर झारखण्ड की धरतीपुत्री दयामणी बारला की उपलब्धियां भी हमें खुश कर सकती हैं। किंतु क्या बालिका सशक्तिकरण के मोर्चे पर संतुष्ट होने के लिए इतना काफी है ?

भ्रम और सत्य

उक्त दो चित्रों का तुलनात्मक निष्कर्ष बालिका सशक्तिकरण की हमारी आकांक्षा को संतुष्ट करने में निश्चित रूप से समर्थ नहीं है। प्रश्न कीजिए कि तो हम क्या करें ? भारत में साक्षरों की संख्या बढ़ायें, दहेज के दानव का कद घटायें, अवसर बढ़ाने के लिए महिला आरक्षण बढ़ायें, विभेद और बेटी हिंसा रोकने के लिए नये कानून बनायें, सजा बढ़ायें या कुछ और करें ? यदि इन कदमों से बेटा-बेटी अनुपात का संतुलन सध सके, बेटी हिंसा घट सके, हमारी बेटियां सशक्त हो सकें, तो हम निश्चित तौर पर ये करें। किंतु आंकङे कुछ और कह रहे हैं और हम कुछ और। यह हमारे स्वप्न का मार्ग हो सकता है, किंतु सत्य इससे भिन्न है। सत्य यह है कि साक्षरता और दहेज का लिंगानुपात से कोई लेना-देना नहीं है। आंकङे देखिए:

साक्षरता और लिंगानुपात

बिहार, भारत का न्यनूतम साक्षर राज्य है। तर्क के आधार पर तो प्रति बेटा, बेटियों की न्यूनतम संख्या वाला राज्य बिहार को होना चाहिए, जबकि देश में न्यूनतम लिंगानुपात वाला राज्य हरियाणा है। हरियाणा में बेटी: बेटा लिंगानुपात 1000: 834 है और बिहार में 1000: 935। बिहार का यह लिंगानुपात, उससे अधिक साक्षर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, लक्षद्वीप, महाराष्ट्र राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से भी ज्यादा है। दिल्ली की बेटा-बेटी.. दोनो वर्गों की साक्षरता, राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है, किंतु लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत (919) से काफी कम यानी 871 है।

2001 की तुलना में 2015 में देश के सभी राज्यों का साक्षरता प्रतिशत बढ़ा है, किंतु लिंगानुपात में बेटियों की संख्या वृद्धि दर सिर्फ केरल, मिजोरम, लक्षद्वीप, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, अरुणांचल प्रदेश, पंजाब, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, चंडीगढ़, दिल्ली, अंडमान-निकोबार में ही बढ़ी है। लक्षद्वीप ने सबसे ऊंची छलांग मारी। गौर कीजिए कि ये ये वे राज्य भी नहीं हैं, 2001-2011 के दौरान जिन सभी की अन्य राज्यों की तुलना में साक्षरता अधिक तेजी से बढ़ी हो। एक और विरोधाभासी तथ्य यह है कि बिहार में ज्यों-ज्यों साक्षरता प्रतिशत बढ़ रहा है, त्यों-त्यों लिंगानुपात में बालिकाओं की संख्या घट रही है। वर्ष 2001 में दर्ज 942 की तुलना में 2011 में यह आंकङा 935 पाया गया। ये आंकङे शासकीय हैं; सत्य हैं; साबित करते हैं कि साक्षरता और लिंगानुपात, दो अलग-अलग घोङे के सवार हैं।

दहेज और लिंगानुपात

बेटियों की हत्या का दूसरा मूल कारण, दहेज बताया जाता है। यदि यह सत्य होता, तो भी बिहार में लिंगानुपात पंजाब-हरियाणा की तुलना में कम होना चाहिए था। आर्थिक आंकङे कहते हैं कि पंजाब-हरियाणा की तुलना में, बिहार के अभिभावक दहेज का वजन झेलने में आर्थिक रूप से कम सक्षम है। अब प्रश्न है कि यदि भ्रूण हत्या का कारण अशिक्षा और दहेज नहीं, तो फिर क्या है ? बेटियों की सामाजिक सुरक्षा में आई कमी या नारी को प्रतिद्वन्दी समझ बैठने की नई पुरुष मानसिकता अथवा बेटियों के प्रति हमारे स्नेह में आई कमी ? कारण की जङ, कहीं किसी धर्म, जाति अथवा रूढि़ में तो नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि औपचारिक साक्षरता में आगे निकल जाने की होङ में हम संवेदना, संबंध और संस्कार की दौङ में इतना पिछङ गये हैं कि मां-बाप ही नहीं, बेटियों को भी इस धरा पर बोझ मानने लगे हैं ?

सोचें!

खैर, अभियानों से भी बात बन नहीं रही। बेटियों की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए गुजरात में बेटी बचाओ, कन्या केलवणी, मिशन मंगलम्, नारी अदालत, चिरंजीव योजना जैसे यत्न हुए। स्वयं सुरक्षा के लिए गुजरात में ’पडकार’ कार्यक्रम चले। अब तो देश के सभी राज्यों में ऐसे प्रयत्नों की शुरुआत हो चुकी है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी ’बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ संकल्प को प्राथमिकता के तौर पर नीति तंत्र, क्रियान्वयन तंत्र और देशवासियों के सामने रख दिया है। तमन्ना है कि नतीजा निकले, किंतु क्या यह इतना सहज है?

वैसे बालिका सशक्तिकरण के लिहाज से कभी सोचना यह भी चाहिए कि भ्रूण हत्या गलत है, किंतु क्या लिंगानुपात में बालिकाओं की संख्या का एक सीमा तक घटना वाकई नुकसानदेह है ? अनुभव क्या हैं ? भारत के कई इलाकों में बेटी के लिए वर नहीं, बल्कि वर के लिए वधु ढूंढने की परम्परा है। ऐसी स्थिति में बेटी पक्ष पर दहेज का दबाव डालने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बालिका सशक्तिकरण के लिए यह अच्छा है कि बुरा ? सोचिए! शायद लिंगानुपात की इसी उलट-फेर से दहेज के दानव के दांत तोङने में मदद मिले। आइये, अब अगले भ्रम से रुबरू हों।

शिक्षा और यौन हिंसा

मेरा मानना है कि संवेदना, संबंध, समभावी और सहभागी संस्कार के बगैर, साक्षरता उस अग्नि के समान है, जो स्वयं की लपट के लिए, दूसरे को भस्म करने में संकोच नहीं करती और दूसरे के भस्म होने के साथ एक दिन स्वयं भी भस्म हो जाती है। संभवतः यही कारण है कि कोरी शिक्षा बालिका सशक्तिकरण के लिए प्रेरित करने में सक्षम नहीं है। यदि वर्तमान शिक्षा सचमुच सक्षम होती, तो यौन हिंसा की शिकार महिलाओं में 35 प्रतिशत के अनुभव, अपने ही सगे संबंधी अथवा साथियों द्वारा यौन अथवा शारीरिक हिंसा के न होते। अमेरिका, ऑस्टेलिया, कनाडा, इजरायल और दक्षिण अफ्रीका में हुई महिला हत्याओं में 40 से 70 प्रतिशत हत्यायें अंतरंग संबंध रखने वाले साथियों द्वारा किए जाने का आंकङा है। गौर कीजिए कि यह आंकङा किसी एक कम पढे़-लिखे देश का नहीं है।

भारत में साक्षरता निरंतर बढ़ रही है; बावजूद इसके महिला अपराध के आंकङे निरंतर घट नहीं रहे। क्यों ? दिल्ली, देश की राजधानी है। दिल्ली, पढ़े-लिखों का शहर है। यहां के 90.94 प्रतिशत मर्द पढे़-लिखे हैं। दिल्ली में महिला साक्षरता का आंकडा 80.76 प्रतिशत है। दिल्ली में कानून का पहरा, अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा सख्त माना जाता है; फिर भी यहां हर दो दिन में पांच बालिकाओं का बलात्कार होता है; तो क्या कानून को और सख्त कर इस चित्र को बदला जा सकता है ?

कानून मार्ग

गौर कीजिए कि अभिभावकों को हम बालिका शिक्षा के लिए तत्पर करने के पीछे की मूल शक्ति कोई कानून नहीं हैं। दोपहर के भोजन, छात्रवृति, मुफ्त शिक्षा, भविष्य के उपलब्ध होते अवसर और अब विवाह योग्य कन्याओं के पढ़ी-लिखी होने की मांग ने चित्र बदला है। हमने बाल विवाह को प्रतिबंधित करने वाला कानून (वर्ष 1929) बनाया। कानून को प्रभावी बनाने के लिए क्रमशः वर्ष 1949, 1978 और 2006 में संशोधन भी किया। कह सकते हैं कि इसका थोङा असर तो है, किंतु भारत के कई हिस्सों और समुदायों में बाल विवाह अभी भी एक चलन की तरह बेझिझक जारी है। यौन शोषण में वृद्धि आंकङों के बाद, सरकार को यौन शोषण (निरोध, निषेध और सुधार) कानून 2013 बनाना पङा। क्या इससे यौन शोषण के आंकङे वाकई घटे? क्या पुरुषों की यौन संबंधी मानसिक विकृति को हम तनिक भी सुधार सके? क्या कानून बनाकर मर्दों को संकल्पित कराना संभव है कि यह दुराचारी कृत्य करने योग्य नहीं है? उलटे इसका नकरात्मक असर यह हुआ है कि निजी कंपनियों ने महिला कामगारों को काम पर रखना कम कर दिया है। शहरों की आबादी में 26 फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई है। किंतु शहरी कामगार महिलाओं की स्थिति बदतर हुई है। एस. वर्मा समिति की रिपोर्ट के अनुसार, यौन शोषण तथा महिला हिंसा जैसे अपराधों से निपटने के दण्ड विधान को कठोर बनाने के बावजूद भारत में ऐसे अपराधों मे कमी नहीं आई है।

स्पष्ट है कि बात न कानून से बनेगी, न सिर्फ अभियानों से और न महज औपचारिक पढ़ाई से। आरक्षण भी सशक्तिकरण का असल उपाय नहीं है। क्यों? क्योंकि पढ़ाई के प्रमाण पत्र, पद और प्रतिद्वंदिता की दौङ में आगे निकल जाने के लिए ताकत देना मात्र ही बालिका सशक्तिकरण नहीं है।

सच पूछें, तो बालिका सशक्तिकरण की असल परिभाषा और असल जरूरत कुछ और हैं। इस बाबत् प्रख्यात गांधीवादी सामाजिक कार्यकत्री सुश्री राधा बहन भट्ट और गोवा की वर्तमान राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा की दृष्टि नई और आलोक से भर देने वाली है। कभी मिलें, तो पूछें।

असल सशक्तिकरण

सच यह है कि यदि बेटी को आरक्षण न मिले, बस, समान सुविधा और अवसर ही दिए जायें, तो भी बेटियां, बेटों से निश्चित ही आगे निकल जायेंगी। इसके कारण हैं, किंतु यह तुलना व्यर्थ है। बेटा और बेटी…दोनो कुदरत की दो भिन्न नियामते जरूर हैं, लेकिन न बेटी दोयम है और न बेटा प्रथम। दोनो की भिन्न गुण हैं और भिन्न भूमिका। कुदरत ने नारी को जिन गुणों का अनुपम संसार बनाया है, पुरुष उनकी पूर्ति नहीं कर सकता। गत् माह पेरिस में बैठकर पूरी दुनिया, पृथ्वी के बहाने, जिस जीवन को बचाने की चिंता कर रही थी, बेटी की भूमिका उस जीवन को बनाने में भी सर्वाधिक है और विध्वंसक वर्ग से बचाने में भी। गौर कीजिए कि बेटियां, प्रकृति की लूट में सीधी-सीधी भूमिका में कम ही है। अधिकतम उपभोग और अंतहीन आर्थिक लक्ष्य के अंधे कुएं की ओर जाने के लिए मची वैश्विक भगदङ और विध्वंस के बीच, रचना और सदुपयोग के जिन बीजों को बोने, पालने और पोषने की जरूरत है, बेटियां उसमें उर्वर भूमिका अदा कर सकती है।

भारतीय जरूरत

घटती समरसता, घटती संवेदनशीलता, घटता साझा, घटते जीवन मूल्य, घटते कुदरती संसाधन, परिणामस्वरूप बढ़ता अवसाद, बढ़ती हिंसा, बढ़ता विभेद, बढ़ती असहिष्णुता, बढ़ती चुनौतियां, बढ़ता शोषण, बढ़ता कुपोषण और बिखरते परिवार, – सोचिए, इन नकारात्मक चित्रों के बीच यदि रचनात्मक भारत का सकारात्मक पुष्ट चित्र बनाना हो, तो क्या नारी को सक्रिय और सहभागी भूमिका में लाये बगैर यह संभव है? नहीं, क्योंकि रचना और पोषण, नारी के ही मौलिक गुण हैं, पुरुष के नहीं। समाज, संसद, आर्थिकी और प्रकृति में नारी की सक्रिय उपस्थिति से ही आर्थिक विषमता, सांप्रदायिक असहिष्णुता और प्राकृतिक शोषण का वर्तमान चित्र को उलटा जा सकता है।

’’श्री वाक्च नरीणां, स्मृर्तिमेधा, धृति, क्षमा’’अर्थात श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य और क्षमा नारी को प्रकृति प्रदत शक्तियां हैं। यह गीता के विभूतियोग अध्याय में कहा गया है। कहना न होगा कि जन्म से इन्ही गुणों का विकास करना ही किसी भी बालिका का असल सशक्तिकरण है। मानसिक और नैतिक सबलता ही, असल सबलता है। इन्ही गुणों के विकास से बेटी, एक सशक्त, समर्थ, सक्रिय और अपनी सर्वकालिक-सार्वभौमिक भूमिका के लिए सतत् सक्रिय, सशक्त और सक्षम बन पायेगी।

बेटी को बेटा बनाने की कवायद आप्राकृतिक है। इस आप्रकृतिक हठ से हटकर, प्रकृति मार्ग पर चलना है। बेटी को बेटी बनाना है; एक आत्मदीप, जो अपनी रोशनी से अपने परिवेश को रोशन करने में समर्थ हो। यह कैसे हो?

यही सोचना है; यही मार्ग है। ऐसा आत्मदीप बनने वाली बेटी फिर चाहे फैक्टरी में हो, विद्यालय में, संसद में, खेल के मैदान में, खेत में, सीमा पर या घर के भीतर..वह अपनी रचना, संवेदना, श्री आदि गुणों के बूते कृति और प्रकृति को पुष्ट ही करेगी। इससे समाज में स्त्री-पुरुष प्रतिद्वंदिता नहीं, बल्कि सहभाग बढे़गा। राष्ट्रपिता बापू के सपने का अहिंसक और सर्वोदयी समाज, बालिका सशक्तिकरण से ही संभव है। यही असल सशक्तिकरण होगा; बालिका का भी, भारत का भी और भविष्य का भी।

अतीत के आइने से

उच्च तकनीकी शिक्षा, नौकरी, व्यापार करना, चुनाव लङना, अकेले घूमना, ड्राइविंग करना, फौज, पर्वतारोहण जैसे क्षेत्र बेटों के लिए ही हैं। बेटियों का इनमें क्या काम? बेटियों के लिए चूल्हा-चैका है, शादी-ससुराल है, बच्चे-पति हैं, पूजा-पाठ है। सुदूर गांवों में अभी भी आम धारणा यही है। यह सत्य है कि इन धारणाओं का आधार, कुछ रुढि़यां, कुछ जरूरतें और इतिहास का कोई कालखण्ड है। किंतु ऐतिहासिक भारतीय संस्कृति को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। धर्मग्रंथ इसके गवाह है।

बेटा-बेटी के प्रति समभाव की भारतीय दृष्टि युगों पुरानी है। मनु का युग, 22 हजार ईसा पूर्व का युग था। मनुस्मृति (अध्याय 9-130) की स्पष्ट राय थी कि बेटी, हर मामले में बेटे के बराबर है। उसे कमतर नहीं आंक सकते। मनुस्मृति (अध्याय 3-1-4), पैतृक संपत्ति में बेटे और बेटी के समान अधिकार का निर्देश देती थी। मनुस्मृति (अध्याय 3/55-62) में स्पष्ट लिखा है कि जिन्हे कल्याण की इच्छा हो, वे स्त्रियों को क्लेश न देवें।

वैदिक काल, ईसा से 10 हजार वर्ष पुराना था। वेद के ब्रह्मजाया सूक्त, कौमार्यावस्था के आरंभ से बेटियों की सामाजिक सुरक्षा को राष्ट्रीय दायित्व मानने जाने का उल्लेख करता है। कन्या भ्रूण हत्या को स्त्रियों के नाश का कारण मानता है। उस काल में भी बेटियों को शिक्षा ही नहीं, स्वयं वर चुनने की स्वतंत्रता थी। प्रजापत्य विवाह को छोङकर, अन्य सभी प्रकार की विवाह पद्धतियों में वर के चयन में कन्या की भूमिका रहती थी। उचित समय पर ही कन्या विवाह का चलन था। बेटियों को स्वतंत्रता थी कि वे चाहें, तो बिना विवाह किए सारा जीवन शिक्षा-शिक्षण में व्यतीत कर सकती थी। कन्या लूटी जाने वाली वस्तु में शामिल नहीं थी।

चार्ल्स ई ए हेमिल्टन ने स्त्रियों की बाबत् पैगम्बर मुहम्मद के संदेशों का सार रखते हुए लिखा है- इसलाम की शिक्षा यह है कि मानव अपने स्वभाव की दृष्टि से बेगुनाह है। वह सिखाती है कि स्त्री और पुरुष एक ही जौहर यानी तत्व से पैदा हुए। दोनो में एक ही आत्मा है। दोनो में इसकी समान रुप से क्षमता पाई जाती है कि वे मानसिक, अध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से उन्नति कर सकें। ’इसलामिक मैरिड वूमैन एक्ट’ तो बाद में पास हुआ, पैगम्बरे इसलाम ने उससे 12 सदी पहले घोषणा की थी कि औरत-मर्द युग्म में औरत, मर्द का दूसरा हिस्सा है। औरतों के अधिकार का आदर होना चाहिए।

इतिहास गवाह कि बालिका स्वतंत्रता और सशक्तिकरण का चलन, लंबे कालखण्ड तक भारत में जारी रहा। सच यह है कि भारत में जैन और बौद्ध धर्म के पतन के साथ-साथ बेटियों की दुनिया और शक्ति को संकुचित करने के प्रयास जाने-अनजाने बढ़ते चले गये। यौवन आक्रमण के कारण भी बेटियों की स्वतंत्रता क्षीण हुई। ऐसा चलन चल पङा कि विधुर चाहे तो 10 वर्ष की कन्या से विवाह कर सकता था। कम उम्र में शादी का चलन, उसी दौर की देन है। आठ से 10 वर्ष उम्र की कन्या का पति मर जाये, तो उसे ताउम्र विवाह से वंचित रहना पङता था। निर्णयों के मामले में बेटियों की दुनिया पराधीन सी हो गई थी। कहनाा न होगा कि जिस दौर में बालिका सशक्तिकरण की दृष्टि से कुछ बुरे चलन शुरू हुए, तो बालिका सुरक्षा के कई अच्छे सामाजिक और पारिवारिक चलन भी उसी दौर में आये। यह परिस्थितिजन्य बदलाव था।

खैर, आज फिर वक्त है। आज हमें फिर सोचना चाहिए कि कहीं कम उम्र में बालिका विवाह न रुकने का वर्तमान चित्र पुनः परिस्थितिजन्य तो नहीं? यह मां-बाप की चाहत है अथवा बाध्यता? कहीं लड़कियों के कम उम्र में व्यस्क होने के कारण तो ऐसा नहीं हो रहा? कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़कियों के साथ हो यौन अपराधों का भय, मां-बाप को बेटियों की कम उम्र में शादी को प्रोत्साहित हो रहा है? कानूनन तय उम्र के वर, अब पर्याप्त पढ़ी-लिखी कन्या से ही विवाह करना पसंद करते हैं। कम उम्र में शादी करने पर यह मांग नहीं रहती। संतानों को पढ़ा-लिखा न पाने की अक्षमता तो बेटियों की कम उम्र में शादी की मजबूरी की वजह तो नहीं?

सोचना चाहिए कि कहीं महिला आरक्षण, घर से बाहर की दुनिया में महिलाओं का बढ़ता वर्चस्व, बढ़ती पूछ, कैरियर में उनकी बढ़ती पकङ की प्रतिक्रिया तो बेटी हिंसा बनकर सामने नहीं आ रही? यौन हिंसा के अन्य कारणों में कहीं हमारे प्रतिकूल होती हमारा खान-पान, बंद रहन-सहन, भागम-भाग भरी जीवनशैली, हताशा और बढ़ता तनाव तो नहीं? क्या कारण है कि स्वयं किसी की बेटी होते हुए भी दादी मरने से पहले पोते का मुुंह देखने की ख्वाहिश रखती है, पोती का नहीं? बालिका सशक्तिकरण के अनेक पहलुओं में से कुछ पहलुओं पर ये कुछ बेहद ज़मीनी, किंतु जटिल प्रश्न है? संभव है कि इनके उत्तर की तलाश में हम बालिका सशक्तिकरण का असली मार्ग तलाश पायें।

पारम्परिक मर्यादा सूत्र

न सभी परम्परायें बुरी हैं और सभी समीचीन आधुनिकतायें। कई परम्परायें हैं, जो बालिकाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा पर लगाम लाने का कारगर माध्यम मालूम होती हैं। अवध क्षेत्र के कई जि़लों में परंपरा है कि बेटी व बहन से क्रमशः पिता व भाई द्वारा चरण स्पर्श नहीं करेंगे। पिता व भाई कितने भी उम्रदराज हो, वे ही बेटी व बहन के चरण स्पर्श करेंगे। बेटी व बहिन कोे गलती से भी चरण लग जाये, तो उसके चरण स्पर्श करके क्रमशः पिता व भाई गलती की माफी मांगेंगे। किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रस्थान से पूर्व मां ही नहीं, छोटी से छोटी कन्या के चरण स्पर्श कर आशीष लेंगे। बेटी, पोती, नातिन, भतीजी से लेकर भानजी तक…. सभी अविवाहित कन्या संबंधियों से इसी व्यवहार की परम्परा है। बेटी तथा अपने से उम्र में छोटी बहन से अपनी किसी भी तरह की अपनी शारीरिक सेवा कराना, पिता व भाई के लिए निषेध है।

इसी तरह बेटी द्वारा कमाये धन का अपने लिए उपयोग, पिता हेतु निषेध है। बेटी के पिता, बेटी के ससुराल पक्ष का धन अथवा भोजन लेना तो दूर, पानी तक नहीं पीयेंगे। बेटी के ससुराल से आया कोई भी उपहार-भोज्य पदार्थ माता-पिता के लिए निषेध है। यदि वे इसका उपयोग करेंगे, तो उसकी एवज में उतनी धनराशि, बेटी को देंगे। बेटी किसी भी जाति या धर्म की हो, वह समूचे गांव की बेटी होगी। यह समभाव भारत के कई इलाकों की परंपरा में रहा है। अवध में परंपरा है कि गांव की किसी भी बेटी के ससुराल में, उस गांव का प्रत्येक पितातुल्य व्यक्ति उक्त न्यूनतम मर्यादाओं का निर्वाह अवश्य करेगा अर्थात भोजन-पानी नहीं ग्रहण करेगा; यही परम्परा है। कई इलाकोें के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य परिवारों में बेटी और बहू से खेत में काम कराने पर मनाही है।

अवध क्षेत्र में बङे भाई की पत्नी को भौजी कहते हैं और छोटे भाई की पत्नी को भयहो। आपत्ति की स्थिति छोङकर, शेष हर परिस्थिति में भयहो और जेठ का एक-दूसरे को स्पर्श पूरी सख्ती के साथ वर्जित है। ऐसा करने पर प्रायश्चित का प्रावधान है। परम्पराओं में तो मां और पत्नी को छोङकर, किसी भी नारी से एकांत में मिलने पर मनाही है। देश के कई इलाकों आज भी बेटी के लिए वर नहीं, वर के लिए बेटी ढूंढी जाती है।

विश्लेषण कीजिए कि क्या इन परंपराओं की पालना करने पर यौन हिंसा अथवा बालिकाओं पर शारीरिक अत्याचार की सामान्य स्थिति में कहीं कोई गुंजाइश बचती है ? आधुनिकता की चमक ने इन परम्पराओं पर धूल भले ही डाल दी हो, किंतु गंवार और अनपढ़ कहे जाने हजार, लाख नहीं, कई करोङ गंवई लोग आज भी बालिका सुरक्षा और सम्मान की ऐसी कई परंपराओं का पालन करते मिल जाते हैं। बालिका सशक्तिकरण के नये नारे और नई पढ़ाई के जोश में हमने ऐसी कई अच्छी पुरानी परम्परायें भुला दी हैं। शुक्र है कि ऐसी कई अच्छी परम्पराओं का जिक्र कई गंवई इलाकों में आज भी सुनाई दे जाता है। आइये इन्हे ध्यान से सुने और फिर अपने जीवन में गुने। ग्राम गुरु से सीखें।

(अरुण तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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