चुनाव प्रचार के लिए मिजोरम जाने से क्यों कतरा गए मोदी-शाह?

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नई दिल्ली। देश के दो राज्यों छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनाव के लिए आज मतदान हो रहा है। मिजोरम में विधानसभा की सभी 40 सीटों के लिए, जबकि छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यों वाली विधानसभा के लिए आज पहले चरण में 20 सीटों के वोट डाले जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ की बाकी विधानसभा सीटों सहित मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के लिए भी इसी महीने अलग-अलग तारीखों में मतदान होना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के तो तूफानी दौरे करते हुए अपनी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं, लेकिन दोनों नेता मिजोरम जाने से कतरा गए। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा भी मिजोरम नहीं गए। पिछले दस सालों में यह पहला मौका है जब प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने किसी प्रदेश के चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं लिया है।

भाजपा की ओर से एकमात्र बड़े नेता के तौर पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ही मिजोरम में चुनाव प्रचार किया है। उन्होंने पिछले बुधवार को मिजोरम में एक चुनावी रैली को संबोधित किया और दावा किया कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में तेजी से विकास हुआ है, जिससे यहां दशकों से जारी अलगाववाद खत्म हुआ है। उनके इस दावे के बरअक्स सवाल हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले छह महीने से पूर्वोत्तर से क्यों अलगाव बना रखा है? वे पूरे देश में घूम रहे हैं लेकिन पूर्वात्तर का दौरा क्यों नहीं कर रहे हैं? हर छोटे-बड़े चुनाव के मौके पर प्रचार के लिए जाने वाले और भाजपा की हर छोटी-बड़ी चुनावी जीत का श्रेय लेने वाले नेता मिजोरम में चुनाव प्रचार करने क्यों नहीं गए?

राजनाथ सिंह ने मिजोरम की चुनावी रैली में आरोप लगाया कि मणिपुर में जब हिंसा चरम पर थी, तब वहां कांग्रेस ने राजनीति करने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने राहुल गांधी का नाम लिए बगैर कहा कि केंद्र और राज्य सरकार के मना करने के बावजूद कांग्रेस के नेता ने मणिपुर का दौरा कर वहां के लोगों के जख्मों को कुरेदा। सवाल है कि अगर राहुल गांधी ने वहां लोगों के जख्मों को कुरेदने गए थे तो लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए वहां जाने से प्रधानमंत्री को किसने रोका था और किसने अभी तक रोक रखा है?

यह सही है कि मिजोरम छोटा राज्य है और 40 सीटों वाली विधानसभा है। फिर भी भाजपा ने जिस तरह से पूर्वोत्तर में अपना विस्तार किया है, वहां कई राज्यों में अपनी सरकार बनाई है और वह वहां अलगाववाद खत्म करके शांति बहाल करने का दावा कर रही है, उस लिहाज से तो उसके लिए यह चुनाव कम अहम नहीं है। सवाल है कि क्या मिजोरम के चुनाव नतीजों का अंदाजा पार्टी को पहले से हो गया है और क्या इसीलिए मोदी और शाह प्रचार के लिए नहीं गए?

गौरतलब है कि मिजोरम में पिछले कई दशकों से कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट बारी-बारी से सत्ता में आते रहे हैं और कांग्रेस के पी. ललथनहवला और मिजो नेशनल फ्रंट के पी. जोरामथंगा बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनते रहे हैं। जोरामथंगा से पहले मिजो नेशनल फ्रंट के संस्थापक लालडेंगा मुख्यमंत्री बनते रहे। पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में भाजपा ने अपनी अच्छी खासी राजनीतिक जमीन तैयार कर ली है लेकिन आदिवासी और ईसाई बहुल मिजोरम, नगालैंड और मणिपुर में उसका जनाधार नहीं बन सका है। मिजोरम के इस राज्य में भाजपा का कभी कोई जनाधार नहीं रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे महज एक सीट मिली थी।

यह भी गौरतलब है कि मिजोरम से ही सटा मणिपुर पिछले छह महीनों से जातीय हिंसा की आग में बुरी तरह झुलस रहा है। वहां 500 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, हजारों घरों और सरकारी इमारतों को जला कर राख कर दिया गया है, सशस्त्र बलों से हथियान छीने गए हैं। मणिपुर की राज्यपाल अनुसुइया उइके की माने तो वहां एक हजार से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और हालात बेहद भयावह हैं। वहां महिलाओं से सामूहिक बलात्कार और उन्हें निर्वस्त्र कर सड़कों पर घुमाने जैसी वीभत्स और शर्मनाक वारदातें भी हुई हैं। छह महीने से वहां कर्फ्यू लगा हुआ है और वहां के लोग मोबाइल व इंटरनेट सेवाओं से महरूम हैं। इन सब घटनाओं की तपिश मिजोरम तक भी पहुंची है। मणिपुर से पलायन कर हजारों लोगों ने मिजोरम में शरण ली है। वहां भी कुकी-जोमी यानी आदिवासी समुदाय के समर्थन में बड़ी रैली निकाली गई।

मिजोरम में सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट कुछ दिनों पहले तक भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए का हिस्सा था, लेकिन मणिुपर की घटनाओं की वजह से ही उसने अपने को एनडीए से अलग कर लिया है। यही नहीं, मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामथंगा ने यह भी ऐलान किया है कि वे प्रधानमंत्री मोदी के साथ कोई मंच साझा नहीं करेंगे। उनके इस फैसले की वजह समझना मुश्किल नहीं है।

मणिपुर में छह महीने से जारी जातीय हिंसा के बीच प्रधानमंत्री मोदी एक बार भी मणिपुर नहीं गए हैं। मणिपुर की स्थिति पर भी वे महज दो बार बोले हैं, वह भी बिल्कुल सरसरी तौर पर। उनके मिजोरम में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाने के पीछे भी मणिपुर की घटनाएं हैं। हालांकि उनके मिजोरम जाने का कार्यक्रम बना था लेकिन मुख्यमंत्री जोरामथंगा ने अपनी पार्टी के एनडीए से अलग होने और प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा नहीं करने का ऐलान कर दिया। उनके इस ऐलान के बाद ही प्रधानमंत्री का मिजोरम जाने का कार्यक्रम टला। अगर वे मिजोरम जाते तो उन्हें मणिपुर के बारे में भी बोलना पड़ता और यह सवाल भी निश्चित ही उठता कि वे मणिपुर नहीं गए लेकिन चुनाव प्रचार के लिए मिजोरम पहुंच गए। इसीलिए वे मिजोरम नहीं गए, जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में चुनाव प्रचार के लिए जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री का दौरा रद्द होने के बाद गृहमंत्री अमित शाह के मिजोरम जाने का कार्यक्रम बना। लेकिन जिन तारीखों में उनके मिजोरम जाने की खबर आई थी, उन तारीखों में वे छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनावी रैलियां करते रहे। यानी उनका भी मिजोरम जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया। जाहिर है कि मणिपुर की हिंसा का असर पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में भी गहरे तक हुआ है और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी हालात की गंभीरता को समझ गया है। मिजोरम में पिछली बार भाजपा ने एक सीट जीत कर अपना खाता खोला था और इस बार उसे ज्यादा सफलता की उम्मीद थी लेकिन अब लग रहा है कि वह अपनी एकमात्र सीट भी नहीं बचा पाएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पूर्वोत्तर से भाजपा के पैर उखड़ने की शुरुआत होगी।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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