क्रिस्टोफ जैफेरलोट-कलैरसन का लेख: हर पैमाने पर दक्षिण भारत हिंदी पट्टी से बहुत आगे निकल चुका है

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(पिछले कुछ समय से हिंदी पट्टी और दक्षिण भारत के बीच का अंतर घटने के बजाय लगातार बढ़ रहा है। इसे हम शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग ही नहीं बल्कि जनसांख्यकीय मामले में भी देख सकते हैं। यह हमें राजनीतिक विभाजन में भी स्पष्ट दिखता है, और देश के भविष्य के लिए भी इसमें गहरे संकेत छिपे हैं। इस विषय पर आज ही इंडियन एक्सप्रेस में क्रिस्टोफ जैफेरलोट और कलैरसन ने संपादकीय पृष्ठ पर गंभीरता से जिन विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है, उसे विशेषकर हिंदी भाषी प्रदेशों के पाठकों को विशेष ध्यान देना चाहिए।)

राजनीतिक आधार पर विभिन्नता  

हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार ने दक्षिण भारत में भगवा ब्रिगेड के अंतिम आधार को भी खत्म कर दिया है। भाजपा भले केंद्र शासित प्रदेश पुद्दुचेरी में अपने शासन की दुहाई देकर खुद को अखिल भारतीय स्तर पर 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली एकमात्र पार्टी साबित करना चाहे, लेकिन इसकी कड़वी वास्तविकता से वह भलीभांति परिचित है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में कांग्रेस और सीपीआई (एम) सहित विभिन्न क्षेत्रीय दल मजबूती से अपनी किलेबंदी को जारी रखे हुए हैं, और इसे उत्तर-दक्षिण के बीच की सांस्कृतिक, भाषाई राजनीति, आर्थिक विकास और सामाजिक बदलाव विभाजन की उत्तरोत्तर बढ़ती खाई के रूप में देखा जा रहा है। 

अंग्रेजी भाषा पर पकड़

आजादी के बाद जहां उत्तर भारत में लोहियावादी आंदोलन और औपनिवेशिक विरासत की निशानी के तौर पर लंबे अर्से तक अंग्रेजी की मुखालफत का झंडा बुलंद किया गया, और हिंदी को राजभाषा ही नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाए। दूसरी तरफ दक्षिण के राज्यों ने जहां एक तरफ अपनी क्षेत्रीय अस्मिता और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को अपने अस्तित्व का सवाल बना लिया, वहीं दूसरी तरफ देश और दुनिया से संपर्क भाषा के तौर पर अंग्रेजी का दामन थामे रखा। 

हिंदी के रणबांकुरों ने हिंदी को हिंदुस्तानी भाषा बनाने के बजाय इसे संस्कृतनिष्ठ बनाने और एक ऐसी भाषा बनाने पर सारा जोर लगा दिया, जिसे सिर्फ राजकीय भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। नतीजा यह निकला कि उच्च-शिक्षा और तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में हिंदी के बजाय अंग्रेजी पर निर्भरता बनी रही। हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी-अंग्रेजी की बहस में उलझे रहे, लेकिन 90 के दशक तक आते-आते जब लगभग हर सरकारी-प्राइवेट नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता मुखर होकर सामने आ गई, तो आम लोगों ने वैचारिक प्रतिबद्धता को दरकिनार कर सरकारी स्कूलों के बजाय प्राइवेट इंग्लिश स्कूलों में अपने नौनिहालों का भविष्य देखना शुरू कर दिया था।

दक्षिण के राज्यों के सामने यह दुविधा नहीं थी, इसलिए वहां के लोगों को पहले भी सार्वजनिक क्षेत्र में हाथों-हाथ नौकरियां मिलीं, और 90 के दशक के बाद जब बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र में पूंजी निवेश हुआ तो इंजीनियरिंग, मेडिकल और आईटी क्षेत्र में भी उनका वर्चस्व बना हुआ है। 

आज पूरे देश में हिंदी भाषा की प्राथमिकता को लेकर एक भी आंदोलन नहीं दिखता, क्योंकि इसे अब राजनीतिक नारेबाजी से अधिक नहीं माना जाता। अक्सर लोग नेताओं के बेटे-बेटियों को विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करते देखते हैं, इसलिए राजनीतिज्ञ अब हिंदी के पक्ष में झूठी बयानबाजी से भी कन्नी काट जाते हैं।  

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के शिक्षा पर 2018 के सर्वेक्षण के अनुसार, दक्षिण भारत में कक्षा 12वीं तक की पढ़ाई के लिए माध्यम के रूप में अंग्रेजी की प्रधानता है। सबसे अधिक तेलंगाना में 63%, केरल 60.7%, आंध्र प्रदेश 59%, तमिलनाडु में 44% और कर्नाटक में 35% बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इसकी तुलना में उत्तर भारत के बिहार राज्य में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों का प्रतिशत 6 और उत्तर प्रदेश में महज 14% था। पश्चिमी हिस्से में महाराष्ट्र का रुख भी दक्षिणी राज्यों से मेल खाता है, जहां 29% बच्चे अंग्रेजी माध्यम से अपनी पढ़ाई कर रहे हैं, लेकिन गुजरात 12.8% के साथ उत्तरी राज्यों का अनुसरण करता नजर आता है।  

कक्षा 1 से ही अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में डालने वाले अभिभावकों के सामने एक बात स्पष्ट रहती है, वह यह कि वर्तमान में गुजर-बसर कैसे भी हो लेकिन बच्चों को उच्च-शिक्षित बनाना है। नौकरियों और देश-दुनिया में जाकर अपने लिए सुरक्षित भविष्य की गारंटी के लिए अंग्रेजी एक अनिवार्य शर्त बन चुकी है। 

शिक्षा में दक्षिण भारत हिंदी पट्टी से मीलों आगे

उच्च-शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (एआईएसएचई) की 2020-21 की रिपोर्ट के मुताबिक सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) के मामले में उत्तर भारत की तुलना में दक्षिणी राज्यों का प्रदर्शन बेहद शानदार रहा है। देश में उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन कराने का अखिल भारतीय स्तर पर औसत जहां 27% था, दक्षिण के राज्य तकरीबन 45% के साथ उत्तरी भारत से मीलों आगे थे। इनमें तमिलनाडु 47% के साथ शिखर पर मौजूद है, जिसके बाद केरल 43% और तेलंगाना 39% के साथ उच्च शिक्षा ग्रहण करता है। इसकी तुलना में बिहार 16% और यूपी में 23% नामांकन उत्तर-भारत की बदहाली को ज्यादा मुखरता से दर्शाता है। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश इसका अपवाद हैं, वरना गुजरात से लेकर पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत तक जीईआर अंक के मामले में राष्ट्रीय औसत से नीचे बने हुए हैं। 

पुस्तकालयों के मामले में भी दक्षिण अग्रणी है। यहां पर सार्वजनिक पुस्तकालयों को बढ़ावा देने की संस्कृति हर जगह देखने को मिलती है। भारत में कुल 27,682 सार्वजनिक पुस्तकालयों में से तीन-चौथाई दक्षिण के राज्यों में हैं, जो अपनी कहानी खुद बयां करने के लिए काफी है। 

दक्षिण भारत ने हिंदी पट्टी को आर्थिक विकास में बहुत पीछे छोड़ दिया  

आजादी के बाद से शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में जैसे-जैसे उत्तर-दक्षिण ने अपनी राह पकड़ी, उसका सबसे बड़ा असर अब नजर आने लगा है। पूंजी निवेशकों के लिए निवेश की पूर्व शर्त बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रशिक्षित श्रम-शक्ति हमेशा से रही है, और देश में ये दोनों शर्तें दक्षिण भारत से बेहतर कोई पूरा नहीं करता। 

प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी यह अंतर बढ़ा है। 2000 में 0.25 की तुलना में 2020 में अंतर्राज्यीय असमानता बढ़कर 0.30 हो चुकी है। लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में कर्नाटक से बिहार की तुलना करें तो यह अंतर 1.9 से बढ़कर 3.91 हो चुका है। बिहार की तुलना में कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय औसतन 5.5 गुना अधिक है। एक ही देश में दो राज्यों के बीच में इतना भारी अंतर चिंता और खेद का विषय होना चाहिए, लेकिन यूपी, बिहार की जनता दिल्ली की गद्दी पर अपने क्षेत्र के नेता के सत्ताशीन होने मात्र से ही खुश रहती आई है। 

प्रति व्यक्ति आय के मामले में क्रमशः कर्नाटक (1,54,123 रुपये), तमिलनाडु (1,45,528 रुपये), केरल (1,34,878 रुपये), महाराष्ट्र (1,33,356 रुपये) और आंध्र प्रदेश (1,14,324 रुपये) शीर्ष पर बने हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ हिंदी भाषी प्रदेशों में बिहार (28,127 रुपये), छत्तीसगढ़ (72,236 रुपये), मध्य प्रदेश (58,334 रुपये), राजस्थान (74,009 रुपये) और उत्तर प्रदेश (39,371 रुपये) के साथ एक दूसरी ही तस्वीर पेश करते हैं। उत्तर भारत के नेता और सत्ताधीश तो इन तथ्यों से हमेशा बचने की कोशिश में रहते हैं, लेकिन उत्तर भारतीयों का नजरें चुराना समझ से बाहर है।

परिसीमन को आधार बनाकर हिंदी पट्टी का वर्चस्व दक्षिण पर थोपने की योजना

इसे कोढ़ में खाज की स्थिति कहना कहीं बेहतर होगा। बात कड़वी लग सकती है, लेकिन हम उत्तर भारतीयों को इसे चुनौती के तौर पर लेना चाहिए। आजकल संसदीय क्षेत्रों को एक बार फिर से परिसीमन के दायरे में लाकर पुनर्परिभाषित किये जाने की राजनीतिक गलियारों में चर्चा चल रही है। यह उत्तर-दक्षिण के बीच की दूरी को और बढ़ाने का काम कर सकता है। 

दक्षिण के राज्यों ने केंद्र सरकार की नीतियों का पालन कर अपनी जनसंख्या को बड़े पैमाने पर नियंत्रित करने में सफलता पाई है। इसके पीछे बड़ी वजह दक्षिण का महिला शिक्षा पर सतत जोर रहा है, जिसके चलते इस क्षेत्र में कुल प्रजनन दर में भारी गिरावट देखने को मिलती है। 

उत्तरी भारत की तुलना में दक्षिण में जनसंख्या वृद्धि की दर बेहद धीमी है। 1971 में भारत की जनसंख्या में दक्षिण का हिस्सा जहां 24.8% था, 2021 में यह घटकर 19.9% रह गया है। इसके उलट यूपी और बिहार की हिस्सेदारी 23% से बढ़कर 26 प्रतिशत हो चुकी है। लोकसभा सीटों के परिसीमन की कवायद का दूसरा अर्थ दक्षिणी राज्यों के राजनीतिक कद को और छोटा करना होगा, जिसको लेकर दक्षिणी राज्यों ने अभी से चिंता जतानी शुरू कर दी है। 

एक अनुमान के मुताबिक परिसीमन के बाद लोकसभा की सदस्य संख्या बढ़कर 848 हो सकती है। इस नई परिस्थिति में 80 लोकसभा सीट वाले उत्तर प्रदेश से 143 सांसद निर्वाचित किये जायेंगे, जिसे 79% की वृद्धि कहा जा सकता है। इसके विपरीत केरल से प्रतिनिधित्व में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी, और तमिलनाडु से मात्र 10 सीटें बढ़ेंगी।

जनसंख्या बढ़ाओ और बदले में बढ़ी हुई राजनीतिक हैसियत पाओ वाले इस परिसीमन से दक्षिण को राजनीतिक रूप से उपेक्षित करना होगा, जो किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। दक्षिण के राज्य अभी से कहना शुरू कर चुके हैं कि जिन राज्यों ने देश की नीतियों पर चलकर प्रगति की राह खोलने में अग्रणी भूमिका निभाई है, परिसीमन के माध्यम से उन्हें ही इसकी सजा देने की तैयारी की जा रही है। 

जब 15वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को करों के हस्तांतरण के लिए 2011 की जनगणना को आधार बनाने का फैसला लिया था, तो दक्षिण की राज्य सरकारों ने इस कदम पर विरोध जताया था। इसके चलते दक्षिण को 14वें वित्त आयोग में केंद्र से प्राप्त कर हस्तांतरण 17.98% से घटकर 15.8% रह गया था।  

एक ही देश में विभिन्न राज्यों में जीवन-स्तर में फर्क ने अंतर्राज्यीय पलायन का आधार भी तैयार किया है। आज बड़ी संख्या में उत्तरी, पूर्वी भारत से दक्षिण के राज्यों में प्रवासन को देखा जा सकता है, जो अपेक्षाकृत संपन्न हैं। हालांकि इससे दक्षिण का नजरिया नहीं बदलना चाहिए, क्योंकि प्रवासी श्रमिक भी इस क्षेत्र की संपन्नता के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। पिछले दिनों तमिलनाडु में बिहारी श्रमिकों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं की फेक वायरल वीडियो से उत्तर भारतीय श्रमिकों के पलायन के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की उनसे काम पर लौटने की अपील और उनकी सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी लेने की घटना से इसकी पुष्टि होती है। 

किसी भी लोकतांत्रिक प्रकिया में जहां हर व्यक्ति के लिए समान अवसर की बात महत्वपूर्ण है, उसी के साथ संघीय ढांचे में क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को भी कायम रखना उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस संतुलन को बनाये रखने के लिए संसद के एक सदन (सीनेट) में 100 सदस्यों के चुनाव के लिए अपने सभी 50 राज्यों से 2-2 प्रतिनिधियों को निर्वाचित किये जाने का प्रावधान लागू किया हुआ है।

भारत को भी इस आधार पर भारतीय संस्थाओं में सुधार करने की जरूरत है, लेकिन इसके लिए विचार-विमर्श जरूरी है। हमारी कोशिश सभी को साथ लेकर चलने और सभी से सीखने की होनी चाहिए।

( प्रस्तुति- रविंद्र पटवाल। रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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