ग्राउंड रिपोर्ट: उत्तराखंड के गनीगांव में लड़कियां आज भी हैं खेल से वंचित, परिजन नहीं देते खेलने की इजाजत

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गनीगांव, उत्तराखंड। खेल खेलना आम तौर पर आपकी फिटनेस और स्वास्थ्य को बेहतर बनाने का एक शानदार तरीका है। इससे न सिर्फ आपका शरीर स्वस्थ रहता है बल्कि मन और मानसिक स्वास्थ्य भी फिट रहता है। दरअसल, खेल जैसी गतिविधियां आपके ब्लड सर्कुलेशन, मूड और मानसिक स्वास्थ्य को सही रखती हैं। एक तरफ खेल जहां आपके फिटनेस के लिए बेहतर है तो वहीं इसमें कैरियर बनाकर खिलाड़ी देश का नाम भी रोशन करते हैं।

यही कारण है कि सरकार भी अब ‘खेलो इंडिया’ के माध्यम से खेलों और खिलाड़ियों को अधिक से अधिक प्रमोट कर रही है। उन्हें प्रैक्टिस के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। विदेशी कोचों को अनुबंधित किया जा रहा है। इसका सुखद परिणाम भी देखने को मिल रहा है। पहले की अपेक्षा अब एथलेटिक्स में ज़्यादा खिलाड़ी पदक जीत रहे हैं।

लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। आज के समय में भी खेल को खेल न समझते हुए इसमें भी लैंगिंक भेदभाव नजर आता है। लड़कों की तुलना में लड़कियों को खेल में आगे आने के लिए कम प्रमोट किया जाता है। देश के कुछ ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां लड़कियों को खेलने से मना भी किया जाता है। ऐसा एक उदाहरण हमें उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक के गनीगांव में देखने को मिलता है जहां लड़कियां आज भी खेल से वंचित रह रही हैं। स्कूल में भी उन्हें खेलने से हतोत्साहित किया जाता है।

खेल में रुचि होने के बावजूद भी उससे वंचित रह रही गांव की एक किशोरी और 12 वीं कक्षा की छात्रा कविता का कहना है कि “लड़कियों के लिए खेलना बहुत जरूरी है। पहले जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी तब मुझे खेलने का बहुत शौक था। लेकिन हमारे घर के लोग हमें बाहर नहीं जाने देते थे। बोलते थे कि खेलकर क्या करना है? पढ़ाई पर ध्यान दो। लेकिन मेरा मानना है कि खेल तो अब पढ़ाई के अंतर्गत आने वाला विषय हो गया है। स्कूल और कॉलेज में अब खेल को एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है। जिसमें लड़कियां अपना भविष्य बना सकती हैं। परंतु हमारे गांव में आज भी लड़कियों को खेलकूद से वंचित रखा जाता है।”

18 वर्षीय गांव की एक अन्य किशोरी हेमा रावल का कहना है कि “गनीगांव में लड़कियों को खेलने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। अगर कोई लड़की खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ना भी चाहे और वह खेलने में अच्छी भी है फिर भी उसे खेलने नहीं दिया जाता है। इस मामले में घरवाले बोलते हैं कि शादी के बाद खेल नहीं, घर का कामकाज ही काम आएगा। यही कारण है कि कहीं न कहीं हमारी क्षमता, पहचान और सोच दबी रह जाती है क्योंकि हमें मौके नहीं मिलते हैं।”

इस संबंध में गांव की 25 वर्षीय महिला गीता देवी का कहना है कि “यह बात सच है कि जैसे लड़कों के लिए खेलना जरूरी है, वैसे ही लड़कियों के लिए भी खेलना आवश्यक है क्योंकि जो आजादी लड़कों को होती है वही लड़कियों की भी होनी चाहिए। उन्हें भी अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक़ है। यदि कोई लड़की खेल के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाना चाहती है तो उसे वह हक मिलना चाहिए। हमारे गांव में लड़कियों को खेलने के लिए आवाज उठाने की ज़रूरत है, क्योंकि लोगों की सोच है कि लड़कियां खेल कर क्या करेंगी? आखिर में उन्हें शादी और घर का काम ही संभालना है।

वहीं 45 वर्षीय रजनी देवी का कहना है कि “बचपन में हम भी खूब खेला करते थे। जब हम गुल्ली डंडा खेला करते थे तो लोग हमारी हंसी उड़ाते थे। लड़कों के जैसे खेल रही है। ये लड़कों का खेल है। हम लड़कियां अपनी पसंद के खिलौने से भी नहीं खेल सकती थीं। मुझे ऐसा लगता था कि हमारे लिए ही ऐसी पाबंदी क्यों? हम तो सीधे-साधे गांव के लोग हैं, हमें तो पता भी नहीं कि दुनिया में और भी बड़े-बड़े खेलकूद होते हैं जिसमें लड़कियां अपना भविष्य बना सकती हैं।”

रजनी आगे कहती हैं कि “आज वह सारे खेलकूद जो लड़के करते हैं, वही लड़कियां भी कर सकती हैं। आज भले ही लड़कियां हर क्षेत्र में आगे हैं, लेकिन अभी भी खेलकूद के मामले में लड़कियों के साथ बहुत भेदभाव होता है। कहीं ना कहीं हम खुद ही नहीं समझ पाते हैं कि लड़कियों के लिए भी खेलना बहुत जरूरी है। उन्हें भी हक है अपनी जिंदगी में अपनी पसंद को जीत लेने का।”

74 वर्ष की एक बुजुर्ग महिला ‌पानुली देवी कहती हैं कि “हम तो उस समय के लोग हैं जब खेलने कूदने की उम्र में हमारी शादी हो जाया करती थी। मेरी भी 13 साल की उम्र में शादी हो गई थी। जब मैं अपने ससुराल में आसपास के लड़कों और हमउम्र लड़कियों को खेलते हुए देखती थी तो मुझे भी खेलने का बहुत मन करता था। एक बार तो मैं खेत का काम छोड़कर हमउम्र लड़कियों के साथ खेलने चली गई थी। जिसके बाद मेरी सास ने मुझे बहुत डांटा था, क्योंकि शादी के बाद लड़कियों पर खेलने की पाबंदी लग जाती थी। फिर चाहे उसकी उम्र छोटी ही क्यों न हो?”

सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी का कहना है कि “हमारे जीवन में स्वस्थ रहने के लिए खाना और पढ़ाई लिखाई जितनी जरूरी है, खेलना भी उतना ही ज़रूरी है। इससे दिमाग और शरीर स्वस्थ रहता है। लड़कियों के लिए भी खेलकूद उतना ही आवश्यक है जितना लड़कों के लिए है। यदि बच्चे प्रसन्न और स्वस्थ रहेंगे तो पढ़ाई लिखाई की ओर भी ध्यान देंगे।”

नीलम ग्रेंडी आगे कहती हैं कि “खेल के अंतर्गत शरीर बहुत अधिक परिश्रम करता है, परिणामस्वरूप अधिक मात्रा में ऑक्सीजन शरीर के अंदर जाती है। यही ऑक्सीजन हमारे रक्त को शुद्ध करती है और भोजन को पचाने में सहायता करती है। जिसने खेलों को महत्व दिया है वह सदैव प्रसन्न, स्वस्थ तथा मजबूत रहता है, उसमें आत्मविश्वास भी बढ़ता है, नेतृत्व की क्षमता उत्पन्न होती है और इच्छाशक्ति भी बढ़ती है।”

खेल स्वास्थ्य का हिस्सा है। लेकिन हमारे समाज में खास तौर से दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों का समाज आज भी इसके महत्व से अनभिज्ञ है। उन्हें सिर्फ अपने लड़कों के उज्जवल भविष्य की कामना रहती है। लड़कियों को तो जैसे-तैसे 12वीं तक पढ़ा लेते हैं। फिर क्या तो लड़की की शादी करनी है, उसे घर संभालना है, बच्चों की परवरिश करनी है। इसीलिए समाज उसकी पसंद और नापसंद का कोई ख्याल नहीं रखता है। अगर लड़कियां हिम्मत करके मैदान में आ भी जाती हैं तो समाज की रूढ़िवादी सोच उन्हें आगे बढ़ने नहीं देती हैं। आखिर इतनी पाबंदियां लड़कियों के लिए ही क्यों होती है?

(उत्तराखंड के गनीगांव से चरखा फीचर की मीना लिंगड़िया की रिपोर्ट।)

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