कॉरपोरेट कंपनियों पर भी मौसम की मार, मांग में कमी से कम हो रही बिक्री

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यदि हम मौसम विभाग के आंकड़ों को देखें तो दिल्ली में जून से सितम्बर के बीच हुई कुल बारिश का 542.2 मिमी दर्ज हुई। पिछले चार साल के औसत में यह कोई बुरा आंकड़ा नहीं है। लेकिन यदि हम इसकी तीव्रता नापें, तो बारिश बेहद असामान्य रही और बाढ़ की स्थिति अचानक आ गई। अगस्त से सितम्बर में भी बारिश का आंकड़ा भी सामान्य ही रहा लेकिन गर्मी और आर्द्रता ने दिल्ली के लोगों को लगातार परेशान रखा।

अखिल भारतीय स्तर पर भी यही स्थिति बनी रही। 30 सितम्बर, 2023 को मौसम विभाग ने बयान जारी कर बताया कि अल निनो प्रभाव के बावजूद जून से सितम्बर के बीच 73 प्रतिशत हिस्से में सामान्य बारिश हुई। इसने बताया कि उत्तर-पूर्व भारत में अगस्त के महीने में सामान्य से 2 प्रतिशत अधिक बारिश हुई। लेकिन जून में सामान्य से 15 प्रतिशत कम, जुलाई में 32 प्रतिशत और सितम्बर में 22 प्रतिशत कम बारिश हुई है।

भारत के दक्षिणी हिस्से में जून में 45 प्रतिशत कम, जुलाई में 45 प्रतिशत अधिक, अगस्त में 60 प्रतिशत कम और सितम्बर में 24 प्रतिशत अधिक बारिश हुई। यहां यह देखना ठीक रहेगा कि केरल में सामान्य से 36 प्रतिशत कम बारिश हुई है। बिहार और झारखं डमें सामान्य से 26 प्रतिशत कम बारिश हुई है।

आंकड़े सारी बात नहीं बोलते हैं। आंकड़ों से निष्कर्ष निकालने के लिए उसे विश्लेषित करना भी जरूरी है। और यदि जमीनी आंकड़ें उपलब्ध न हों तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचना एक जल्दीबाजी का काम हो जाता है। इतना जरूर याद किया जा सकता है इस साल मई और जून के महीने में पश्चिमी विक्षोभ काफी सक्रिय रहा। और बंगाल की खाड़ी की गर्म हवाएं भी सक्रिय हो उठी थीं, जिसकी वजह से भारत के पूरब और पश्चिम दोनों ही जगहों पर चक्रवात आया।

इसके साथ ही अल नीनो का प्रभाव भी बढ़ने लगा था। इसका कुल नतीजा मानसून के उपयुक्त मौसम और हवा के दबाव का निर्माण प्रभावित हुआ। उस समय ही भारत सरकार के कृषि मंत्रालय की ओर बयान आने लगा था कि गर्मी का मौसम लंबा खिंचेगा और इससे खरीफ की फसलों की बुआई प्रभावित होगी। इस संदर्भ में कुछ गाइडलाइन्स भी जारी की गईं। जून का महीना काफी हद तक सूखा ही गुजरा। अगस्त के महीने में सबसे कम बारिश दर्ज हुई और 123 साल का रिकार्ड टूट गया।

डाउन टू अर्थ ने अपने डाटा विश्लेषण के आधार पर बताया कि 20 अगस्त से 24 सितम्बर, 2023 के बीच कुल 718 जिलों में से 500 से अधिक जिले सूखे की स्थिति का सामना कर रहे थे। यह लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा बनता है। इस तरह हम देख सकते हैं कि मौसम विभाग का आंकड़ा एक तरफ यह बता रहा है कि इस बार देश के 73 प्रतिशत हिस्से में सामान्य बारिश रही।

वहीं डाउन टू अर्थ के आंकड़ा उपरोक्त दो महीनों की बारिश के आधार पर बता रहा है कि 70 प्रतिशत हिस्से में सूखे की स्थिति बन गई। यहां हमें इस बात को जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि सूखे की स्थिति को सिर्फ बारिश की आमद के आधार पर ही नहीं नापना चाहिए। इसमें स्थानीय जलस्रोतों और जमीन की नमी जैसे कारकों की ओर भी ध्यान देना चाहिए, ये एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

बहरहाल, हम इतना जरूर कह सकते हैं कि छोटे और मध्यम किसानों के लिए धान और बारिश पर आधारित फसलों को बिना बारिश के लंबे समय तक बचाकर रखना बेहद मुश्किल होता है। ऐसे में या तो किसान देर से बुआई करते हैं या खेत को परती रखना पसंद करते हैं। इसका एक बड़ा कारण कृषि की लागत में होने वाली बढ़ोतरी है।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि खरीफ फसल उगाने वाले किसान बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुए है। दूसरी ओर, जहां जल स्रोतों की उपलब्धता है; मसलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश वहां अतिवृष्टि ने भारी तबाही का मंजर खड़ा किया और बाढ़ ने बड़े पैमाने पर पर फसल को नुकसान पहुंचाया।

हिमाचल और उत्तराखंड में पर्यटन और फसल दोनों को ही नुकसान पहुंचा। और वहां की संरचनागत व्यवस्था चरमरा जाने की स्थिति में पहुंच गयी। इस सबका असर निश्चित ही लोगों की आय पर पड़ा है। खरीब फसल के नुकसान और सूखे की स्थिति से अलग-अलग राज्यों के किसानों पर कितना असर पड़ा है, फिलहाल न तो अभी केंद्र सरकार की ओर से और न ही राज्य सरकारों की ओर से रिपोर्ट जारी हुई है। इस संदर्भ में नुकसान झेलने वाले किसान किसी राहत की उम्मीद किये बिना अब रबि की फसल की तैयारियों में लग गये हैं।

किसानों की ओर आंख मूंद लेने से सच्चाई का दब पाना मुश्किल होता है। इस बार खुद किसान नहीं बाजार बता रहा है कि मौसम की मार काफी गहरी है। 6 अक्टूबर, 2023 को इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बता रही है कि मौसम में बदलाव का असर व्यवसाय पर सबसे बड़े कारक की तरह उभरकर आया है। इसमें चाहे उपभोक्ता समान बनाने वाला हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड हो या हुंडई, इमामी हो या पेप्सीको, सभी इसके प्रभाव की चपेट में हैं।

नेस्ले के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक सुरेश नारायण ने अखबार को बताया कि ‘यह कुछ अनुमान लगाने जैसी बात हो सकती है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र का ठीकठाक असर पड़ता है और इसका प्रभाव मांग की कमी की ओर ले जा सकता है। नेस्ले का ग्रामीण क्षेत्र में भारत की कुल बिक्री का 20-25 प्रतिशत हिस्सा है। हिंदुस्तार लीवर का 40 प्रतिशत हिस्सा है। डाबर भी ग्रामीण क्षेत्र को ध्यान में रखकर बाजार में कई सारे प्रोडक्ट लेकर आया है।

इसी तरह प्रसाधन से जुड़ी कंपनियां ग्रामीण क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए अपने उत्पादों का विस्तार कर रही हैं। गांवों को ध्यान में रखते हुए ही कारों का निर्माण भी एक खास पहलकदमी है। ये सभी कंपनियां गांवों के बाजार में मांग की कमी के बारे में बता रही हैं। मौसम का प्रभाव एकदम से सामने नहीं आ रहा है, लेकिन इसके दूरगामी असर को कंपनियों के प्रबंधक महसूस कर रहे हैं और इस संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त कर रहे हैं।

इस संदर्भ में पेय पदार्थ उत्पादक कंपनी वरुण के चेयरपर्सन रवि जयपुरिया के कथन को उद्धृत करना उपयुक्त होगा- ‘हम तो मौसम को नियंत्रित नहीं कर सकते। इसके अलावा और कोई बाधा ही नहीं है कि हमारा विकास न हो। आप बारिश के देवता को संभाल लें, बाकी हम पर छोड़ दें।’

यहां वह किसान देवता को भूल गये। वह यह मानकर चल रहे हैं कि किसान सिर्फ एक उपभोक्ता है। उन्हें यह नहीं पता कि वह भी उत्पादक है और साथ ही उद्योगों का वह कच्चा माल जिसके बिना शहर का आमजन भी बाजार से बाहर जायेगा। मौसम की मार गांव से चलते हुए शहर तक आने से रोकने का एक ही रास्ता है, किसानों को उनका हक दिया जाए।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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